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ख़ुामोशी का अर्थ पराजय नहीं होता - बीस के दशक में बांग्ला कविता के केन्द्र में थे रवीन्द्रनाथ। तत्कालीन बांग्ला के अधिकांश कवियों पर या तो रवीन्द्रनाथ का प्रत्यक्ष प्रभाव था या वे अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाने में असमर्थ थे। उसी समय नज़रुल इसलाम का उदय हुआ । नज़रुल का काव्यलोक रवीन्द्रनाथ से भिन्न ही नहीं था, उन्होंने रवीन्द्रनाथ के एकाधिकार को बहुत बड़ी चुनौती भी दी थी।
तीस के दशक में कविता का मुख्य केन्द्र कलकत्ता था जहाँ नज़रुल स्वयं सक्रिय थे। ढाका में उस समय जो कवि अपनी स्वतन्त्र पहचान बना रहे थे, उनमें प्रमुख थे जसीमुद्दीन और अब्दुल कादिर । उन कवियों पर रवीन्द्रनाथ या नज़रुल इसलाम की कविताओं का प्रभाव नहीं था । इस दशक के कवियों में एक वर्ग क्रान्तिधर्मी कवियों का भी था उन कवियों ने नज़रुल इसलाम की क्रान्ति और जागरणमूलक काव्यधारा को आगे बढ़ाया ।
चालीस का दशक बांग्लादेश ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व के लिए उत्तेजना और अस्थिरता का दशक था । द्वितीय विश्वयुद्ध, भुखमरी, साम्प्रदायिक दंगा, देश विभाजन आदि ने बुरी तरह बांग्लादेश को प्रभावित किया। साथ-साथ मुस्लिम मानस के स्वाभिमान का संघर्ष भी जारी रहा । इस दशक की कविता की दूसरी धारा थी - इसलाम चेतना । इसलामी धारा की कविताओं का विकास यद्यपि नज़रुल इसलाम की इसलामी चेतना की कविताओं से होता है परन्तु उस धारा के अधिकांश कवि उर्दू के मुहम्मद इक़बाल से ही ज़्यादा प्रभावित लगते हैं । इसलामी चेतना की अनेक कविताएँ बांग्ला में लिखी जाने के बावजूद उर्दू जैसी उच्चकोटि की धर्माधारित कविताएँ बांग्ला में नहीं लिखी गयीं ।
पचास के दशक के कवियों को आन्दोलन के कवि के रूप में चिह्नित किया जा सकता है । भाषा - आन्दोलन की जो शुरुआत 1948 में होती है, 1952 तक वह पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है। 21 फरवरी की रक्तरंजित घटना ने बांग्लादेश की कविता को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। इस दशक के कवियों ने बांग्लादेश की कविता को काफ़ी ऊँचाई दी। उसी धारा से बढ़ते हुए साठ के दशक की कविताओं में निराशा, अविश्वास, क्रोध, मोहभंग, यौनता जैसे विषय भी खुलकर आये यानी पचास के दशक की सामाजिक चेतना ने साठ के दशक में आकर व्यक्तिगत चेतना का रूप ले लिया ।
सत्तर का दशक बांग्लादेश की कविता का आत्माविष्कार का दशक है। 1971 के मार्च महीने से सम्पूर्ण बांग्लादेश में मुक्तियुद्ध की आग लगी रही वह युद्ध नौ मास तक चलता रहा और दिसम्बर महीने में स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ ख़त्म हुआ। दमन, पीड़न, अपमान, निर्यातन और साथ ही मुक्ति की आकांक्षा, संघर्ष, आक्रोश, प्राणोत्सर्ग, स्वाधीनता प्राप्ति का आनन्द-ये कविता के जीवन्त विषय बने । बांग्लादेश के कवियों की सभी पीढ़ियाँ इस दशक में जीवन के नये स्पर्श से सक्रिय हो उठीं। बांग्लादेश की स्वाधीनता के बाद जो राजनीतिक-सामाजिक पट परिवर्तन हुए उसे देखते हुए अस्सी के दशक की कविता में मूल्यहीनता एक महत्त्वपूर्ण विषय लगती है । परन्तु इस दौर के अनेक कवि प्रकृति और प्रेम की उपासना को ही प्रधानता दे रहे थे । इस दशक में कविता की दो अलग-अलग और स्पष्ट धाराएँ साफ़-साफ़ दीखती हैं - एक है संघर्षशील जनमुखी धारा और दूसरी है निर्लिप्त आत्मकेन्द्रित ।
इस तरह बांग्ला कविता की विराट परम्परा से एकात्म होते हुए बांग्लादेश की कविता ने सफलतापूर्वक अपनी जो अलग पहचान बनायी है, यह उसकी एक बड़ी विशिष्टता और शिखर का प्रमाण है । निस्सन्देह, बांग्लादेश की बीसवीं सदी की कविता और प्रख्यात लेखक बदरुद्दीन उमर के संस्कृति विषयक लेखों को सँजोती यह पुस्तक हिन्दी के पाठकों के लिए उपयोगी तो है ही, ऐतिहासिक और संग्रहणीय भी है ।
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