रात और विषकन्या - बीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में उभरे जो कवि समय की पहचान की निरन्तर कोशिश के साथ एक सार्थक जीवन दृष्टि के लिए पढ़े जायेंगे, उनमें नोमान शौक़ महत्त्वपूर्ण हैं। नब्बे का दशक कई मायनों में युगान्तरकारी था। बकौल बर्तोल्त ब्रेख़्त यह वह समय था जब 'बहुत सारी चीज़ें रूढ़ हो चली' थीं और 'शब्दों पर सुरक्षाप्रियता का लेप चढ़ गया' था। मुक्तिबोध के समय जो यथार्थ 'अँधेरी स्याह' रातों में गश्तियाँ लगाया करता था, अब खुले आम दिन-दहाड़े रथ पर सवार जुलूस निकालने लगा था। उपभोक्तावाद, भूमण्डलीकरण, बाज़ारवाद, सूचना संक्रान्ति का हल्ला भी इसी दशक में होता है। निश्चित तौर पर ऐसे कठिन समय में कविताई भी कठिन से कठिनतर होती गयी। लगभग यही वह समय है जब नोमान शौक़ कविता फलक पर नमूदार होते हैं। इस नये और किंचित अस्पष्ट यथार्थ के बरअक्स उनके यहाँ सरल भावुकता के गहनतर रूपों में एक अबोधता या विस्मय है, साथ ही एक कठोर जिजीविषा और उन खण्डित होते मूल्यों का आह्वान भी, जो कवि परम्परा से अनुस्यूत हैं। उर्दू की ख़ुशबू से लबरेज़ ये कविताएँ साम्प्रदायिकता और भूमण्डलीकरण की बर्बरता का प्रतिकार विद्रोह की जिस भाषा में करती हैं, वह इस पुस्तक को विशिष्ट बनाती है।
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