Lakarbaggha Hans Raha Hai

Hardbound
Hindi
9788170557302
2nd
2018
106
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कविता की मौलिक शर्त यदि सारे मानवीय सरोकारों को अभिव्यक्ति देना है तो हम कह सकते हैं हिन्दी में चन्द्रकान्त देवताले उन बहुत कम कवियों में से हैं जो बहुत दूर तक उसे पूरा करते हैं। उनकी कविताओं में प्रतिबद्धता का अर्थ एकरसता नहीं बल्कि आदमी होने के कई स्वाद, आयाम, गन्ध, स्पर्श, स्वर और रंगों को अभिव्यक्ति देना रहा है। ऐन्द्रिकता उनके सृजन का पिछले चालीस वर्षों से एक अभिन्न हिस्सा रही है जिससे हिन्दी को कुछ बेहतरीन उद्दाम कविताएँ मिली हैं जिनमें आत्मरति या पतनशीलता नहीं है। औरत उनकी कविताओं में कभी अपने आदिम और सार्वभौमिक रूप में आती है, मसलन औरत में, जो हिन्दी में अब एक कालजयी रचना का दर्जा रखती है, कभी पत्नी के रूप में, जैसे महीनों बाद अपने ही घर में जैसी रचना में, कभी सखी जैसी, कमरे में अँधेरा होते ही या तुम हमेशा अकेली छूट जाती हो सरीखी स्तर बहुल कविताओं में। परिवार, माँ और बेटियाँ भी इसी स्निग्धता का अनिवार्य हिस्सा हैं।

किन्तु चन्द्रकान्त देवताले की दुनिया निजता और निजी जनों तक ही सीमित होती तो उनकी कविता उतनी बड़ी न हो पाती जितनी वह है। इस संसार में जो भी श्रेयस्कर है वे उसे बचाना चाहते हैं और क्रूरता, हिंसा, दमन, अन्याय, गैर-बराबरी और ऐसे सारे मानव-द्रोह की अपने ढंग से यथासम्भव शिनाख्त करते हैं उसके विरुद्ध चेतावनी देते हैं और उसका मुकाबला करते हैं। यदि उन्होंने लकड़बग्घे का इस्तेमाल प्रतीक रूप में किया है तो इसलिए कि उस अपनी प्रकृति से लाचार जानवर में उन्होंने प्रबुद्ध मानव की पाशविकता देखी है। गाँवों से लेकर महानगर की सड़कों तक पागल कुत्तों, कबर बिज्जुओं, भेड़ियों और लकड़बग्घों जैसे झुंड कल्पनातीत तरीकों से भारतीय मानवता को चींथ रहेहैं और ऐसे में कवि शाश्वतता, सौन्दर्य, कला, संस्कृति, परम्परा अध्यात्म जैसे शब्दों के पीछे नहीं छिप सकता। इसलिए उसकी कविताओं में बहुत सारे मजलूम बच्चे, विपन्न श्रमजीवी, अभागे माता-पिता, बँधुआ मजदूरों की तरह गुलामी करते कारकुन, शोषित और दलित केन्द्रीय उपस्थिति बनाये रहते हैं क्योंकि जब तक पूरे समाज को प्रेम, परिवार और सुखी होने का हक हासिल नहीं होगा तब तक निजी स्वर्ग मात्र अय्याशी ही रहेंगे।

'स्वप्न' सरीखी कुछ कविताओं में मुक्तिबोध की जटिल फंतासियों का स्मरण दिलाते हुए चन्द्रकान्त देवताले स्नेह, करुणा, गुस्सा, व्यंग्य, विद्रूप और 'ब्लेड' जैसी कविता में शान्त रस के बहुआयामीय प्रयोग से एक ऐसा काव्य-संसार रचते हैं जिसमें गाँव मौजूद है और नगर भी, निम्न और निम्नमध्यवर्ग हैं तो खाता-पीता भारतीय परोपजीवी उच्चवर्ग भी, मायूसी है तो एक अविजित आशा भी। वे हिन्दी के सर्वाधिक प्रतिबद्ध कवियों में हैं किन्तु उनकी प्रतिबद्धता किताब या संस्था या संगठन से सीखी गयी नहीं है। अपने और अपने आसपास के जीवन और अनुभवों से अर्जित की गयी है। उसके लिए बहुत कठिन ज़िन्दगी जीनी पड़ी है। कवि ने समाज और उसके आतताइयों को इतनी प्रामाणिकता से देखा है कि उसकी कविताएँ उसके समय का ऐसा दस्तावेज़ बनती चली गयी हैं जो पुराना नहीं पड़ता । चन्द्रकान्त देवताले के पास तजिबों और संवेदनाओं के कई स्तर हैं और उनमें से हर एक के लिए एक उपयुक्त भाषा भी है किन्तु अपने समूचे सृजनात्मक सरमाये का इस्तेमाल वे किसी नुमाइश या प्रतिसाद के लिए नहीं बल्कि हमेशा हिन्दुस्तानी आदमी के हक में करते हैं। उनकी कविताएँ हमें सदा बेहतर सोचने, करने और बनने की प्रेरणा देती हैं और हमारे ज़मीर की पहरुआ हैं।

- विष्णु खरे

चंद्रकांत देवताले (Chandrakant Devtale)

चन्द्रकान्त देवताले जौलखेड़ा (जिला बैतूल), म. प्र., में 7 नवम्बर, 1936 को जन्म। होल्कर कॉलेज, इन्दौर से 1960 में हिन्दी साहित्य में एम.ए. । सागर विश्वविद्यालय से मुक्तिबोध पर 1984 में पी-एच. डी. । छात्र जीव

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