साधकों के लिए धर्म जब किताबी ज्ञान या आचारपरक वाद-विवाद का विषय बनने की बजाय अनुभूत सत्य और भावावेश पर केन्द्रित हो जाए, तो हम भक्ति, आत्मीयता और प्रेमोल्लास के अनूठे देश में प्रवेश करते हैं। मध्यकालीन वीरशैव कवयित्री महादेवी, अक्का या अक्क महादेवी इसी अनुभव समृद्ध 'अनभै साँचा पंथ' की पथिक हैं। ऐसी रससिद्ध आदर्शवादी परम्परा में मल्लिकाशुभ्र स्वामी की भक्ति को तन-मन से समर्पित करने वाली अक्क महादेवी का उदय एक सहज कुसुम के खिलने सरीखी घटना थी ।
अपने पूरे फैलाव में अक्क महादेवी की कविता, जिसको यतीन्द्र ने बहुत सुन्दर, अन्तरंग और संवेदनशील ढंग से आत्मसात कर पुनःसृजित किया है, एक तरल विषाद भरी मेधावी स्त्री दृष्टि से ओत-प्रोत है। इसमें मानवीय क्षुद्रता के अविराम प्रदर्शन को लेकर पीड़ा है किन्तु प्रतिशोध की इच्छा या चौंकाने वाली प्रदर्शनकारिता का भाव कतई नहीं। एक कठोर और लीक से हटकर जिये गये संघर्षशील जीवन से उपजे होने पर भी शिव को सम्बोधित यह भक्तिप्रवण वचन मन को चमत्कारिक कवि रूढ़ियों या कटुता की ओर नहीं ले जाते। उनका मूल स्वर एक निर्मल वैराग्य का है
नाटकीय प्रतिवादों के निरर्थक कलावादी नारीवादी तेवरों के घटाटोप में भटकते आज के सत्साहित्यविमुख पाठकों तक बारहवीं सदी की दुर्लभ काव्य धरोहर को पहुँचाने के इस विवेकी सत्प्रयास के लिए यतीन्द्र मिश्र भरपूर बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं ।
- मृणाल पाण्डे
प्रस्तावना से एक अंश...
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