आधुनिक उर्दू कविता में गुलज़ार शायद सबसे अधिक अननुमेय कवि हैं। उनकी काव्य यात्रा किसी पहाड़ी नदी की तरह है जिसे खुद पता नहीं होता कि उसे किन-किन वादियों से गुज़रना है, कहाँ-कहाँ झील बनानी है और किन दरख़्तों की जड़ों को सींचना है। वह अपनी धुन में आगे बढ़ती जाती है और हर कदम पर एक नया, पहले से ख़ूबसूरत और ज्यादा दिलचस्प लैंडस्केप छोड़ जाती है। इस घुमावदार और रोमांचक सफर में जो एक रंगत गुलज़ार की शाइरी का साथ कभी नहीं छोड़ती, वह है अपने आसपास से एक जज़्बाती रिश्ता । यह आसपास इतना विस्तृत है कि इसके दायरे में पेड़-पौधों, नदी-झरनों और इनसानी दुःखान्तों और मनोहरताओं से लेकर पूरी कायनात आ जाती है। दूसरी तरफ, इस मज़बूत रिश्ते में इतना खलूस है कि यथार्थ का हर पहलू कवि को अपना लगने लगता है। लेकिन जो चीजें उनके मुलायम मिज़ाज से मेल नहीं खातीं या जो यथार्थ इतना विकृत कर दिया गया है कि वह अयथार्थ में तब्दील हो गया है, उसके साथ भी वे पंजा नहीं लड़ाते, बल्कि अपने ख़ास हक़ीक़ी अन्दाज़ में उसकी पीठ पर हल्के से अपने नाखून गड़ा देते हैं।
पन्द्रह पाँच पचहत्तर की कविताएँ पन्द्रह खण्डों में विभाजित हैं और हर खण्ड में पाँच कविताएँ हैं । गुलज़ार का यह पहला संग्रह है, जिसमें मानवीयकरण का इतना व्यापक प्रयोग किया गया है । यहाँ हर चीज़ बोलती है-आसमान की कनपट्टियाँ पकने लगती हैं, काल माई खुदा को नीले रंग के, गोल-से इक सय्यारे पर छोड़ देती है, धूप का टुकड़ा लॉन में सहमे हुए एक परिन्दे की तरह बैठ जाता है... यहाँ तक कि मुझे मेरा जिस्म छोड़कर बह गया नदी में । यह कोई उक्ति-वैचित्र्य नहीं, बल्कि वास्तविकता का बयान करने की एक नयी, आत्मीय शैली है। यह वास्तविकता भी कुछ नयी-नयी-सी है, जिसकी हर परत से एक कोमल उदासी बाविस्ता है। यह उदासी जहाँ हमारे युगबोध को एक तीखी धार देती है, वहीं उसकी कोमलता की लय ज़िन्दगी को जीने लायक बनाती है। कुल मिलाकर, पचहत्तर नज़्मों में बिखरा हुआ यह महाकाव्य हमारी अपनी जिन्दगी और हमारे अपने परिवेश की एक ऐसी इंस्पेक्शन रिपोर्ट है जिसका मजमून गुलज़ार जैसा संवेदनशील और खानाबदोश शायर ही कलमबन्द कर सकता था।
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