हिन्दी भारत की भाषा है लेकिन केवल भारत की नहीं पिछले कुछ समय से वह दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में फैलती गयी है और यह विस्तार आज भी जारी है। लन्दन में हिन्दीवासी बड़ी संख्या में हैं और हिन्दी बोलते भी हैं। यद्यपि अंग्रेज़ी का वर्चस्व थोड़ा बढ़ा है पर पिछले अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि कुछ क्षेत्रों में खासतौर से यू.के. हिन्दी समिति व वातायन के प्रयास से हिन्दी न सिर्फ़ बढ़ी है बल्कि अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनी है। गोष्ठियाँ होती हैं, पत्रिकाएँ निकलती हैं और ये सब कुछ जिस एक व्यक्ति का प्रयास है उसे मैं सीधे-सीधे उसके नाम से याद करूँगा 'श्री पद्मेश गुप्त' । वे मूलतः लखनवी हैं। उनके वयोवृद्ध पिता दाऊजी मेरे आज भी अच्छे मित्र हैं।
यह जानकर मुझे विशेष प्रसन्नता हुई कि पद्मश का नया कविता संग्रह आ रहा है। संग्रह के साथ की भूमिका से संग्रह की सभी कविताओं और पद्मश के कविता कहने की कला की जानकारी तो मिल ही जायेगी पर अपनी ओर से यह कहूँगा कि यह कृति एक अभिनव प्रयास है और पद्मेश की अन्य रचनाओं से आगे बढ़ी हुई है।
इससे पहले उनके दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं पर यह तीसरा संग्रह थोड़ा अलग ही दिखाई पड़ता है और पहले से कुछ और भी महत्त्वपूर्ण। मैं पूरा संग्रह तो नहीं देख सका हूँ लेकिन एक कविता पर मेरी दृष्टि पड़ी, जो बेटे को निवेदित है। जो आज की भाषा में है और जिसका सन्देश भी ठेठ आज का है।
'पचिह्न-पुत्र प्रंकित को'
चलते चलते बाज़ार में
किसी ने मेरी अँगुलियाँ थामीं
मैं खिलौनों की दुकान की ओर बढ़ गया
क्षण भर में भ्रम टूटा,
और मैंने पाया...
मेरी हथेली को स्पर्श करने वाला...
सिर्फ़ एक हवा का झोंका था।
फिर कैसे ?
मुझे अपने पदचिह्नों के साथ...
कुछ नन्हे पाँव के निशान भी दिखायी दिये
और सूर्यास्त सी मुस्कान के साथ
मैं स्वयं...
खिलौनों का बाज़ार हो गया।
कविताएँ दूसरी भी महत्त्वपूर्ण हैं पर इस अच्छी कविता के साथ मैं अपनी बात साधुवाद के साथ समाप्त करता हूँ और प्रियवर पद्मेश को हार्दिक बधाई देता हूँ।
- केदारनाथ सिंह
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