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संवाद तुमसे

Hardbound
Hindi
NA
1st
1990
102
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संवाद तुमसे - .....और मुझे लग रहा है कि खुलने में या बन्द हो जाने में, बोलने में या मौन में दोनों में वह जो बारीक़-सी सुख की रेखा है वह तो एक जैसी है इसलिए दोनों में कोई अन्तर नहीं है। मेरी आत्मा दोनों में वर्तमान है और मैं दो हिस्सों में बँटा नहीं हूँ। और यह अनुभव करके भी हर्ष होता है क्योंकि वह अपने में ही एक निधि जैसे कोई खोयी हुई चीज़ वापस मिल जाये। मुझे लगता है मैं कोई विज़न (Vision) देख रहा हूँ। और तुम उस विज़न में नहीं हो। लेकिन उस विज़न को देखते-देखते मेरे मन में एक तन्मय उन्माद उमड़ता आ रहा है, जो धीरे-धीरे मेरे पूरे शरीर, पूरी आत्मा पर छाता जा रहा है और मैं एक एनरज़ेटिक (energetic) बादल से घिर गया हूँ। और मेरे भीतर से प्रकाश का प्रभामण्डल फूट रहा है। और ऐसी दशा में शब्द बिल्कुल बेकार हैं, मुद्राएँ भी बेकार हैं। लेकिन मेरे उस तुम तन्मय उन्माद (rapture) को छू रही हो क्योंकि वह प्रभामण्डल तुमको स्पर्श करता हुआ फैलता जा रहा है और शब्दों और मुद्राओं से परे एक संवाद स्थापित हो रहा है। और जहाँ मैं उस विज़न से अभिभूत हूँ मेरे पार्श्व में स्थित तुम मेरे उन्माद को देख रही हो, छू रही हो, महसूस कर रही हो और तुम उस विज़न को भी देख रही हो और वह उन्माद तुम पर भी छाने लगता है। और धीरे-धीरे वह विज़न अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता वह सिर्फ़ उस दूरस्थ पहाड़ी की तरह हो जाता है जो अपनी तरफ़ लौटती हुई गूँज के लिए रिफलेक्टर का काम करती है। जो महत्त्वपूर्ण है वह है यह तन्मय उन्माद (rapture)। विज़न की सार्थकता उस तन्मय उन्माद को उत्पन्न करने में है। और इस समय लग रहा है कि न मैं अन्तर को मथ कर उमड़ते हुए शब्दों से डरता हूँ और न ख़ामोश धड़कनों से। दोनों एक ही चीज़ें हैं और दोनों में ही मैं हूँ। —(साही के एक पत्र से)

विजय देव नारायण साही (Vijay Dev Narain Sahi)

विजय देव नारायण साही - 7 अक्टूबर, 1924 को वाराणसी में जनमे विजय देव नारायण साही (अपने मित्रों के लिए विजया) के व्यक्तित्व में एक प्रकाण्ड अध्यापक, प्रौढ़ कवि, विद्वान समालोचक, प्रखर लेखक, मेधावी चि

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