यदि यह पूछा जाए कि हमारे समय के समर्थतम और मुकम्मिल कवि चंद्रकांत देवताले के इस नए और स्वयं उनकी सर्जनात्मकता की दृष्टि से नितांत अलग संकलन को समझने की कुंजी क्या है तो शायद इसी की यह पंक्तियाँ बहुत मौजूँ और मददगार हो सकती हैं : मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं/हाँ छिपाने को होता है/बहुत कुछ हर व्यक्ति के पास पर मैं तो उगल चुका कविताओं में अपने सारे भेद...वह रहा फुसफुसाहटों में दबा / मेरी कमीनगी का स्याह पत्थर/इस अमलतास वाली कविता में ये/ताज़े बबूल के काँटों-सी मेरी कमज़ोरियाँ/यह मेरी ताक़त का सबूत समुद्र। वह मेरा यकीन आग का दरवाज़ा ...चंद्रकांत की कोई कमीनगियाँ या कमजोरियाँ हैं भी यह तो इन कविताओं को समझकर ही तय किया जा सकता है क्योंकि बहुत जान-बूझकर उन्होंने यहाँ अपने यक़ीन और ताक़त की रचनाएँ नहीं दी हैं, शायद इसलिए कि वे उन्हें अपनी सुरक्षा, पैरवी या क्षतिपूर्ति के लिए प्रमाण के रूप में पेश नहीं करना चाहते बल्कि अपनी एकदम निजी अभिव्यक्ति को जैसे एक स्वीकारोक्ति के रूप में किसी अदालत की बंद चारदीवारी में नहीं बल्कि सबके सामने बयान करना चाहते हैं।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि ऐसा नहीं है कि कवि पहली बार ऐसा कर रहा हो बल्कि जब से चंद्रकांत ने कविता लिखना शुरू किया है-जिसे अब चालीस वर्ष से ऊपर हो चुके हैं- उनकी सर्जनात्मकता सार्वजनीनता और निजीपन की कई रंगतें लेकर आई है जिनमें एक अपराध-बोध और इक़बाल-ए-जुर्म भी बार- बार लौटे हैं। हर प्रतिबद्ध कवि में एक तनाव होता है-अपने व्यापकतर मानव-मूल्यों और विराटतर संघर्षों तथा अपने निजी जीवन की जद्दो-जहदों, राग-विरागों और कवि के ही शब्दों में कमज़ोरियों और कमीनगियों के बीच वह किस तरह का रिश्ता कायम करे, यह एक ऐसा अतिप्रश्न है जिसका उत्तर यही हो सकता है कि प्रतिबद्ध व्यक्ति या तो अपने निजी का सार्वजनिक में लोप कर दे-जो एक सर्जक के लिए असंभव आदर्श और आदेश है-या एक ईमानदार पक्षधर की तरह निर्ममतम स्वीकारोक्तियों के सिलसिलों का आसरा ले । चूँकि एक सच्चा प्रतिबद्ध आदमी सबसे पहले अपनी तहकीकात करता चलता है इसलिए पक्षधर कवि के सामने इक़बाल के अलावा कोई रास्ता होता ही नहीं ।
अपनी कई कविताओं में कवि अपनी अनेक तरह की कमजोरियों, विफलताओं, हसरतों और विश्वासघातों के हलफिया बयान हमें देता चलता है जिनमें वह वह प्रच्छन्न या प्रकट छद्म पौरुष या बाजारू फक्कड़पन नहीं दिखाता जो कुछ चुके हुए गद्यकारों के बुढ़ापे की दाल-रोटी बन गए हैं। चंद्रकांत के यहाँ अपने सीमोल्लंघनों, भावनात्मक भटकावों, अपनी धोखेबाज़ियों को लेकर एक गहरा पछतावा है और उनकी कई ऐसी कविताओं में घटनाएँ, आख्यान, कहानियाँ या यदि उन्हें इकट्ठा देखें तो उपन्यास- सरीखा कुछ पढ़े जा सकते हैं ।
किंतु यदि चंद्रकांत देवताले की कविताओं में सिर्फ गुनाह ही गुनाह और उनके इक़बाल ही होते तो निस्संदेह वह एक मनोरोग और उससे एक चालाक छुटकारे की तरकीब ही होती। किंतु चूँकि इन निजी कविताओं में कवि अपने पूरे जीवन का स्मरण कर रहा है इसलिए वह स्वयं को उस दूसरी स्थिति में भी देखता है : जब मैं प्रेम करता हूँ अपने से / जब मैं प्रेम करता हूँ तुम से-सबसे / जब हम प्रेम करते हैं पृथ्वी से... फिर भी पूरी नहीं होती प्रेम की परिक्रमा/ क्षितिजों के पार कुछ ढूँढ़ती ही रहती है/ कवियों की आँखें । रागात्मकता की इस प्रदक्षिणा में कवि बार-बार स्मृतियों, संबंधों और ऐंद्रिकता में लौटता है और पाँच
सौ वर्षों पीछे के किसी पूर्व-जन्म में भी जा सकता है। याददाश्त का मारा वह ऐसी दुनिया में प्रवेश कर सकता है जहाँ अपनी और पराई स्त्रियों की गंध है और जहाँ जितने अदृश्य चुंबन हैं उतने ही घाव हैं। उसकी संगिनी के लिए वह रेत और पानी पर हज़ारों शब्द लिख सकता है, वह उसके भीतर गाने लगती है और वह उसे इस तरह पीता है जैसे मछली पानी । जल की झालरों, उफनती नदियों, लहराते वृक्षों और इस गर्भवती पृथ्वी से उसमें मानवेतर कुछ आदिम जाग उठता है जिसमें वह जीना मरना चाहता है। ऐंद्रिक बिंबात्मकता शुरू से ही चंद्रकांत की कविताओं की ताक़त रही है और हिंदी में शुद्ध कामना की ऐसी थर्राती पंक्तियाँ बहुत कम हैं : तुम उस बाजू/कब तक चंद्रमा से/धोती रहोगी आँखें ... मैं कब तक पीता रहूँगा/ इतनी पत्थर रोशनी/यहाँ चुपचाप ।
यह पहले भी देखा जा चुका है कि चंद्रकांत के यहाँ दाम्पत्य की कविताएँ तब से हैं जबकि उनका चलन हिंदी में हुआ नहीं था और इस संकलन तक आते-आते उसकी रंगत और उसकी संगीतात्मकता और गाढ़ी हुई है । सब-कुछ के बावजूद दाम्पत्य अब भी कवि का अंतिम शरणस्थल है। दाम्पत्य की तनावपूर्ण सतत् उपस्थिति चंद्रकांत की अनेक कविताओं के केंद्र में है।
अवसान का अहसास भी चंद्रकांत की कविता में शुरू से रहा है और इन कविताओं में से कुछ में वह तीक्ष्णता और विषण्णता से उपस्थित है। कहीं-कहीं वह दाम्पत्य के साथ उसी तरह घुल- मिलकर आता है जैसे रघुवीर सहाय की कतिपय विलक्षण अंतिम कविताओं में और कभी अपने चिंतन-संगीत में वे उस तरह होती हैं जैसे भवानीप्रसाद मिश्र की कुछ अँधेरी कविताएँ। लेकिन यहाँ भी चंद्रकांत के अपने आशान्वित जटिल और ऐंद्रिक बिंब उन्हें अन्य सभी कवियों से अलग करते हैं। इन सारी कविताओं में आत्मपरकता और एकांतिकता की अद्वितीय साहसिक अभिव्यक्ति है जो उसी कवि के बूते की बात थी जिसने इस को अपनी संपूर्ण मानवीय प्रतिबद्धता का अविभाज्य हिस्सा बना लिया हो।
- विष्णु खरे
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