भूमिकाएँ ख़त्म नहीं होतीं - 'भूमिकाएँ ख़त्म नहीं होतीं' हिन्दी के यशस्वी कवि हरीशचन्द्र पाण्डे का तीसरा कविता संग्रह है। उनका एक अन्य कविता संग्रह ‘एक बुरूँश कहीं खिलता है' क़ाफ़ी चर्चित हुआ। हरीशचन्द्र पाण्डे जी की कविता का विषय सामान्य होता है, लेकिन उसका ढाँचा एक नयी अनुभव निर्मिति लेकर आता है जिससे हमें एक नये प्रकार का आस्वाद मिलता है। वहाँ बाहर की चमक हो या न हो, भीतर की मलिनता को माँजकर उसमें चमक लाने की मेहनत स्पष्ट देखी जा सकती है। उसके भीतर का कमरा सिर्फ़ कमरा नहीं रह जाता, वह पाठक का आत्मीय बन जाता है, सदा का संगी— जो भी जायेगा घर से बाहर कभी कहीं भीतर का कमरा साथ-साथ जायेगा। 'भूमिकाएँ ख़त्म नहीं होतीं' का कवि घटनाओं और स्थितियों को बनाता नहीं, उन्हें सिर्फ़ दिखाता है, उनका कुछ इस तरह शब्द संयोजन करता है कि नया अर्थ फूटे। साथ ही, उन विसंगतियों की ओर इंगित करता है, जिनका बोध सामान्यतः हमें नहीं होता। वह एक सहृदय पाठक को उस बोध की पीड़ा देकर कविता से उपजा एक नया आस्वाद देता है, काव्यगत रसानुभूति कराता है। हरीशचन्द्र पाण्डे की ये कविताएँ सौन्दर्य बोध के विवादी स्वर भी उभारती हैं। वहाँ वे खुरदुरेपन के साथ-साथ ख़ूबसूरत मानवीय भावबोध भी पैदा करती हैं। आशा है, पाठक को इन कविताओं में रसानूभूति के नये बिम्ब-प्रतिबिम्ब मिलेंगे।
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