एक अतिरिक्त 'अ'- क्या अनुभव की निराशाएँ एक मानवीय सामर्थ्य को जन्म देती हैं और क्या उम्मीद किसी गहरी नाउम्मीदी से पैदा होती है? युवा कवि रश्मि भारद्वाज की कविता इसका जवाब एक मज़बूत हाँ में देती है। उनकी कविता में एक ऐसे दुःख से हमारी मुलाक़ात होती है जिसके अनुपस्थित होने पर बड़ी कविता की रचना मुमकिन नहीं हुई है, लेकिन वह दुःख अपने को प्रचारित नहीं करता, बल्कि अपनी विविध छवियों के साथ किसी की अनुपस्थिति में ख़ुद को सहेज लेता है— हमेशा उपस्थित रहने के लिए। ऐसे दुःख में एक अन्तर्निहित शक्ति चमकती है। शायद इसीलिए ये कविताएँ पाठक की संवेदना में अन्ततः हताशा पैदा नहीं करतीं। मिर्ज़ा ग़ालिब ने कभी कहा था— 'मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़।' रश्मि की ज़्यादातर कविताओं में निराशा और शिकस्त का जो 'भिन्न षडज' बजता रहता है, वह इस तरह है— 'सबसे हारे हुए लोगों ने रचीं सबसे भव्य विजय गाथाएँ/ टूटते थकते रहे लेकिन पन्नों पर रचते रहे प्रेम और जीवन।' यह सिर्फ़ निजी हताशा नहीं है, बल्कि अपने समय की उदासी है। इस कविता का अनुभव संसार महानगरों के जीवन में साँस लेता है, लेकिन उसमें एक क़स्बे या छोटे शहर की स्मृतियाँ अन्तर्धारा की तरह बहती रहती हैं। यहाँ एक तरफ़ अपने भावी और शहराती पति को खुश करने के लिए काँटे-छुरी से पित्ज़ा खाने की विफल कोशिश करती एक लड़की दिखती है तो दूसरी तरफ़ एक रात के लिए देवी का रूप लेती हुई स्त्री का जीवन भी है जो पाठक को गहरे विचलित कर देता है। ज़्यादातर कविताओं में एक नयापन है और वह इसके नाम एक अतिरिक्त 'अ' से ही शुरू हो जाता है। इस शीर्षक की दो कविताएँ इतिहास और समाज के हाशिये पर पड़े मनुष्यों की अतिरिक्त कही जाने वाली उन उपस्थितियों को उभारती हैं जिनकी 'बेबस पुकारों से प्रतिध्वनित है ब्रह्मांड' ऐसे कई अनुभव कई कविताओं में हैं जो बतलाते हैं कि रश्मि विचार और संवेदना के अच्छे सफ़र पर हैं।
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