जिस उम्मीद से निकला - 'जिस उम्मीद से निकला' डॉ. लहरीराम मीणा का पहला कविता संग्रह है। इस कविता संग्रह से पहले उनकी आलोचना की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिन्हें देखकर ये सहज ही कहा जा सकता है कि रंग-अध्ययन और रंग-चिन्तन में उनकी रूचि अधिक है। रंग आलोचना-समझना चाहना उनका पहला प्रेम है। वे कहीं इस बात को स्वीकार करते हैं कि ये भी ग्लोबल गाँव में रहते हैं। लेकिन लोकल गाँव उनकी रग-रग में रचा बसा है। गाँव की मासूमियत, संस्कार, संसार को देखने की दृष्टि सम्बन्धों-सरोकारों की प्राण-शक्ति, अपनापन और वह सब कुछ जो गाँव की पहचान भी है और उसे परिभाषित भी करता है, उनकी स्मृति का अभिन्न अंग है। यह बात ज़्यादा ग़लत नहीं कि वह गाँव ग़ुम हो गया है जहाँ कहीं पेड़, तालाब आदि में बचा है वह भी स्मृति शेष ही की तरह है। लेकिन कवि की स्मृति में वह ठीक वैसा ही आनन्द है जैसा पूर्वजों के समय में या उनके बचपन में था। उनका प्रेम 'नहीं जानता' कि क्यूँ किसी का स्रोत जीवन में सब अच्छा होने जैसा है? उनका मानना है कि 'एक दूसरे के लिए सोचना ही प्रमाण है। दोनों की उपस्थिति का।' यह शायद इसी सोच का परिणाम है कि उन्हें बाहर के संघर्ष की अपेक्षा अन्दर के संघर्ष से डर लगता है। शायद यह अन्दर के संघर्ष ही का सुफल है कि वे इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि बारिश केवल बरसना ही नहीं है और भी बहुत कुछ है। यह उन दो अकेलेपनों की अभिव्यक्ति है जो एक दूसरे की चिन्ता में घुले जा रहे हैं लेकिन एक दूसरे से अपना दुख-दर्द कह सुन नहीं पाते। संग्रह की बेशतर कविताएँ पढ़कर लगता है कि लहरीराम मीणा किसी गाँव या शहर के कवि नहीं बल्कि स्मृतियों के शहर के कवि हैं। जहाँ प्रेम है, पुस्तक है, पेड़ हैं, पूर्वजों की विरासत सीर का घर है शब्द और उनके अर्थ हैं और है सरल स्पष्ट भाषा में अपने होने की अभिव्यक्ति का प्रमाण—शहर में गाँवों का संस्कारित जीवन।—शीन काफ़ निज़ाम
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review