इस समय जब हिन्दी कविता में आत्मालोचना का स्वर लगभग विलुप्त सा हो गया है, निर्मला तोदी की कविताओं में इस स्वर का सुनना उम्मीद जगाता है। वो जितना अपने से बाहर की स्थितियों का विश्लेषण करते हुए सवाल उठाती हैं उतना ही. अपने स्व का भी विश्लेषण करती हैं। यह कविता जानती है कि वह अपनी कमजोरी को अपने बड़प्पन में छिपा रही है, उसमें इसे स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है। वह जरूरी जगह पर भी चुप रह जाने का जानती है और इसलिए अपनी इस चुप्पी पर सवाल भी करती है। निर्मला की कविता यह सवाल करती है कि जब घर में ही चुप हूँ तो परिवार, पड़ोस, समाज और देश के लिए कुछ भी कैसे कहूँ? निर्मला तोदी की कविताएँ भाषा को बरतने में न केवल मितव्ययी है बल्कि अपनी आवाज के तापक्रम को भी वह एक संयत तापक्रम पर ही बनाये रखती हैं। उसमें अतिरिक्त मुखरता या अतिशयोक्तियाँ नहीं हैं, शायद इसलिए इन कविताओं की आवाज हमें ज्यादा भरोसेमन्द लगती है ।
इन कविताओं में अपनी परम्पराओं की धीमी गूँज को सुना जा सकता है। उसमें नाते रिश्तों में आ रहे बदलाव की पीड़ा भी है और उनकी अनेक स्मृतियाँ भी। उसमें जरूरत के समय काम आने वाले घरेलु नुस्खों की भी यादें बसी हुई हैं। ये कविताएँ दो अलग अलग स्थानीयताओं के बीच न केवल एक दूसरे को याद करती हैं बल्कि दोनों के बीच पुल बनाने का भी काम करती हैं।
इन कविताओं की शान्त दिखती सतह के नीचे एक गहरी बेचौनी है। ये कविताएँ जो रात भर सोने नहीं देतीं, कभी ये अधूरी सी लगती हैं और बार बार अपने को पूरा करने के लिये परेशान करती हैं। कभी कभी ये जादू की तरह दिमाग पर छा जाती हैं और कभी एक टिकिट पर लिखी कविता पर पूरी पृथ्वी घूमने लगती है।
निर्मला तोदी का यह दूसरा संग्रह उनके पहले संग्रह से आगे की यात्रा की ओर संकेत करता है।
- राजेश जोशी
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