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सत्यपाल सहगल बहुत हल्के स्पर्शो से लिखते हैं, लेकिन, अपने अनुभव और दृश्य जगत की ऐन्द्रिकता को खोने नहीं देते। वह तमाम धुंध, कुहासे, ग़र्दो- गुबार को पोंछ कर प्रकृति को निहारते हैं और उसके साथ अपने भीतर का तार जोड़ते हैं। वैयक्तिक उदासी, कामना, अन्तःसंघर्ष, उम्मीद और ख़ामोशी की विविध छटाएँ उनकी कविता में बिखरी हुई हैं। इनमें सुबह की छवियाँ हैं तो शाम के शोख़, धूसर या बेगाने रंग भी; रात का झरता - डोलता - भटकता तन्त्री- नाद भी है। बारिश, बादल, नदियाँ, नहरें, पहाड़ सब इन कविताओं में अपने स्वभावगत लय-गति में कवि की अपनी छुअन के साथ हैं। ये कविताएँ शोर नहीं करतीं, बस अपनी ही रौ में घटती रहती हैं। दरअसल, ये चित्र - कविताएँ हैं- कहीं शब्दों से तो कहीं उन शब्दों के बीच के सन्नाटे से बनी हुई। सत्यपाल सहगल के यहाँ धूप एकवचन नहीं, बहुवचन है। धूप के जितने चित्र इनमें मिलते हैं, हिन्दी कविता में शायद ही कहीं हों । धूप के कई संस्करण हैं । खिली धूप जैसे झील / मन किनारे बँधी नाव। फिर भी असन्तोष कि धूप-रूप/किसने पाया । धूप को आख़िरी क़तरे तक पी लेने की ऐसी प्यास अन्यत्र कहीं नहीं दिखती। सूखती चूनर आसमान/शाम की मुट्ठी में धूप/ रात के ठहराव की तैयारी : धूप का यह अन्दाज़, शाम का यह चित्र नितान्त मौलिक है ।
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इन्हीं चित्रों में जीवन के धुंधलाते, मटमैले, चमक खोते या किंचित विद्रूप, विसंगत, ख़ौफ़ और ख़ून से सने पहलू भी दिखाई देते रहते हैं। यह सभ्यता लगभग ढली मोमबत्ती... पिघलती मोमबत्ती जैसी सभ्यता को हवाओं से बचाने की यहाँ बेचैनी है, मनुष्यता को सँभालने की कोशिश भी है- आकाश में बहती नदी / पेड़ों पर बसे मकान / सड़कें खुले थान.../ मैदान में बची-खुची मनुष्यता...।
अपने दार्शनिक भाव से, मनुष्य और प्रकृति और मनुष्य- मनुष्य के अटूट जुड़ाव के रेखांकन से ये इन्सान के वास्तविक सुख के उपाय उपस्थित करती हैं।
यहाँ लोगों से ज़्यादा / सुख की खोज में कविता है । इस प्रकार ये कविताएँ समकालीन हिन्दी कविता का एक नवीन और वांछित प्रस्थान-बिन्दु रचती हैं।
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