बावरा अहेरी
'बावरा अहेरी'—प्रत्यक्ष की प्रतीकात्मक भावानुभूति, मार्मिक सौन्दर्यबोध, काव्य-शिल्प की चमत्कारी उद्भावनाएँ शब्दातीत रहस्य के साक्षात्कार... कवि के ही शब्दों में
"बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट है :
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़कर क्या तू चला जायेगा?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँडर की शिरा-शिरा छेद दे :
आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर दे :
विफल दिनों की कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखें आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये
पहनूँ सिरोपे से ये कनक-तार तेरे—
बावरे अहेरी।"
'बावरा अहेरी' अज्ञेय की काव्य-श्रृंखला—के मध्य की एक अत्यन्त सशक्त कड़ी है, जो उनके कवि-व्यक्तित्व के दोनों छोरों को जोड़ती है। सन् 1933 में प्रकाशित 'भग्नदूत' और सन् 1970 में प्रकाशित 'क्योंकि मैं उसे जानता हूँ' के ठीक बीचोंबीच सन् 1950 से 53 तक की कविताओं का यह संकलन सन् 1954 में प्रकाशित हुआ था और इधर लम्बे अरसे से अनुपलब्ध था। अज्ञेय के समग्र व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए अनिवार्य 'बावरा अहेरी' का प्रस्तुत है नया संस्करण।
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