दुःख-तन्त्र - बोधिसत्व युवा पीढ़ी के उन कवियों में से हैं जिनकी कविता अपने मातृलोक से कभी विलग नहीं हुई : उनमें उनका लोकजीवन लगभग अनायास अन्तर्ध्वनित होता है। उन पर नागरिक जीवन के सभी दबाव और तनाव पड़ते रहे हैं और उनमें एक तरह की ऐसी समझदारी हमेशा सक्रिय रही जिसे राजनैतिक कहा जा सकता है। सौभाग्य से यह समझ किसी क़िस्म की नाटकीयता या बड़बोले दिखाऊपन में विन्यस्त होने के बजाय आस-पास पुरा-पड़ोस की छवियों और स्मृतियों से अपने को चरितार्थ करती है। बोधिसत्व का नया कविता संग्रह 'दुःख-तन्त्र' उनकी कविता का नया विस्तार भी है। उसका अधिकांश उसके दूसरे खण्ड में है जिसे नाम दिया गया है 'स्थापना: कमला दासी की कविताएँ।' यों तो हमारे समय में उजला इतना कम बचा और नज़र आता है कि कविता लगभग विवश 'अन्धकार का पारायण' करती रहती है। बोधिसत्व के दुःख का उपजीव्य है कमला दासी नामक एक देवदासी। जिससे उसकी अकस्मात भेंट होती है और फिर कवि उसके साथ कुछ समय उसके आश्रम में बिताता और उसकी आपबीती को कविता में विन्यस्त करता है। इस अर्थ में वे कमला दासी की कविताएँ नहीं हैं कि वे उसके दुःख पढ़ती समझती कविताएँ हैं, बल्कि इस अर्थ में भी कि उनकी रचना प्रक्रिया में उसकी भूमिका रही है। यह ऐसी बेघरबारी की कविताएँ हैं जिसमें 'काया पर अकेलापन काई की तरह सुशोभित है' और जिसमें यह पता नहीं कि 'महावर की शीशी का क्या होगा जो कभी छूट गयी कहीं।' वह परिसर की उपज है जिसमें मरण के बाद रोटियों की ये गन्ध पीछा करती रहती है। कविताओं का यह समुच्चय एक तरह से खण्ड-खण्ड में गुँथा हुआ एक लम्बा शोकगीत है। उसमें बीच-बीच में हिचकियों के साथ-साथ यह प्रत्यय भी है कि 'स्त्री को देखना उतना आसान नहीं जितना तारे देखना या पिंज देखना' यह दुनिया अपने कोलाहल से भरी है जिसमें 'अब तो यह भी नहीं जानती मैं कि कजरी गा रही हूँ या भजन', और जिसमें 'दूर कहीं बच्चे को रोता छोड़ करती हूँ भजन... नाचती हूँ उसकी रुलाई के ताल पर।' यहाँ 'आँसू और लाचीदाना दोनों का स्वाद कितना अच्छा होता है' और अगर चाहे 'कहीं और जाना तो होगा' अपने अन्तः के झाड़-झंखाड़ में भले किसी को खोजो, 'चतुर लोग', 'ऊपर ताक लगाये बैठे हैं' 'रोने की सादी' आवाज़ें प्रार्थना की तरह सुनी और लिखी जाती हैं और 'दुःख सर्वदा सुख के मन में रास रचाता है।' यह लोक बोधिसत्व की अपनी कविता के लिए नया है। एक ऐसे समय में जब अध्यात्म और धर्म के नाम पर विराट् क़दम चल रहे हैं, यह कविता इन क़दमों के पीछे दबी-छुपी सचाई को उजागर करती है। एक बेहद उलझे हुए दौर में इतना करती है तो कविता अपने को नैतिक हस्तक्षेप की तरह प्रासंगिक बनाती है। — अशोक वाजपेयी
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