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अंबुधि में पसरा है आकाश -
"हमारे समय की एक बड़ी घटना है भाषा की गंगोत्री में स्थानीय जड़ी-बूटियों की मनहर गन्ध का मत्त विलास सुरक्षित रखने का महदसंकल्प-जातीय स्मृतियों से महमह जोशना की ये कविताएँ खूबसूरती से यह तथ्य रेखांकित करती हैं कि हिन्दी की प्रकृति पानी-सी है-तरह-तरह के रंग, तरह-तरह की खुशबुएँ आत्मसात् करती हुई यह लहर-लहर बढ़ती रहेगी! महादेवी वर्मा द्वारा सम्पादित 'चाँद के कई अंकों में आपको बंगाली बाला, तेलुगु बाला, मराठी बाला आदि द्वारा बंगला हिन्दी, तेलुगु हिन्दी, मराठी हिन्दी, उर्दू-बहुल हिन्दुस्तानी हिन्दी आदि में लिखे कई लेख मिल जायेंगे! पर बौद्धिक आलेख से ललित निबन्ध और फिर कविता की भाषा तक भाषाओं के इस बहनापे का प्रसन्न अवतरण एक और बड़ी घटना है ! पंजाबी हिन्दी का सूफियाना ठाठ जैसे कृष्णा सोबती से लेकर गगन गिल, तेजी ग्रोवर, पूनम अरोड़ा आदि ने हिन्दी में घोला, सोनार बांग्ला की रससिद्ध सांस्कृतिक स्मृतियों का लालित्य जोशना की इन सुभग कविताओं में मिलेगा । आनन्दवर्धन जिस गझिन ध्वन्यात्मकता को काव्य की आत्मा कहते हैं, ऐसी ही समधीत, अन्तःपाठीय गपशप से उसका मनोलोक समृद्ध होता है जिसकी सहस्र मन्द्र अनुगूँजें जोशना की कविताओं में सहज ही लहर लेती हैं- 'भात', कविता में एक ही शब्द की महीन अर्थ-व्याप्तियों से मग्न लीलामयता, एक ही बीज शब्द के गहन उच्चार में मन्त्र की तरह की बारम्बारिता, 'बृहस्पति' में लोक विश्वासों का सहज विलास, 'कहाँ है हमारा कुटुम्ब' में विश्व भर के साहित्यकारों और दार्शनिकों का संयुक्त परिवार उगाहने की सहज भारतीय प्रज्ञा जो एक सच्चे प्रेमी में शंखपुष्प की तरह खिल ही जाती है-ख़ासकर जब आसन्न परिवार और परिजन-पुरजनों का दुत्कारा हुआ वह एकदम अकेला पड़ जाता है-अपने देश-काल से विच्छिन्न! यही वह विरल क्षण होता है जब सारी सीमाएँ ढह जाती हैं और अनन्त हो जाता है भाषिक अवचेतन जैसा जोशना का हुआ !"
-अनामिका
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