Your payment has failed. Please check your payment details and try again.
Ebook Subscription Purchase successfully!
Ebook Subscription Purchase successfully!
अनन्तिम मौन के बीच - सुजाता की कविताएँ हिन्दी कविता संसार की भाषिक, वैचारिक और भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई इसके आयतन का सुखद विस्तार करती हैं। उनके पास एक सशक्त और समृद्ध भाषा है लेकिन स्त्री भाषा की तलाश में सघन जद्दोजहद भी है, पाँवों के नीचे स्त्रीवाद की एक सख़्त ज़मीन है लेकिन अपने और समाज के सन्दर्भ में उसकी सीमाओं की पहचान और नये आयामों को तलाशने का बेचैन धैर्य भी है, अपने कई पीढ़ी पुराने महाविस्थापन की पीड़ा के निशानात हैं तो महानगरीय नागरिकता को लेकर सहज गौरव का वह भाव भी जो उन्हें हिन्दी कविता में दिल्ली का स्थापित प्रतीक पलट देने का साहस प्रदान करता है। आसपास के वातावरण और रोज़मर्रा जीवन के विश्वसनीय तथा जीवन्त बिम्बों से अपना कविता संसार गढ़नेवाली सुजाता की कविताओं में पहाड़ और प्रकृति की एक सतत अभिव्यंजनात्मक उपस्थिति है, अपने उपस्थित लोक के समक्ष यह उनका एक अर्जित लोक है— एक चेतन स्त्री की दृष्टि से देखी गयी दुनिया। वह हिन्दी के समकालीन स्त्री विमर्श के स्थापित रेटरिक को भाषा, शिल्प और विचार तीनों के स्तर पर चुनौती देती हैं और यह चुनौती नारों या शोर-शराबे के शक्ल में नहीं है बल्कि उस नागरिक के विद्रोह की तरह है जो सूट-बूट से सजे समारोह में सस्ती कमीज़ पर माँ का बुना स्वेटर पहनकर चला जाता है। वह आह-कराह के समकालीन शोर के बीच निजी दुखों को सार्वजनीन विस्तार देती हैं तो बृहत् सामाजिक-राजनीतिक आलोड़नों पर शाइस्तगी से टिप्पणी करते हुए उन्हें निजी पीड़ा के स्तर पर ले आती हैं। कविता से उनकी असन्तुष्टि कविता के मुहाविरे के भीतर है तो विमर्श के प्रचलित मुहाविरे से उनका संघर्ष विमर्श की व्यापक सैद्धान्तिक सीमाओं के भीतर नकार का नकार करते हुए। यह सतत द्वन्द्व उनकी कविताओं का केन्द्रीय स्वर है जो हिन्दी तथा विश्व कविता की परम्परा के सघन बोध की रौशनी में अपने समकाल का एक विश्वसनीय बयान दर्ज करता है और इसीलिए ये कविताएँ हमारे समय के स्त्री जीवन के आन्तरिक और बाह्य संसार की दुरूह यात्राओं के लिए आवश्यक पाथेय हैं।— अशोक कुमार पांडेय
रेटिंग जोड़ने/संपादित करने के लिए लॉग इन करें
आपको एक समीक्षा देने के लिए उत्पाद खरीदना होगा