एक ऐसे समय में जब अधिकतर युवा कवि एक-दूसरे की देखादेखी कुछ गिने-चुने विषयों पर कविता लिख रहे हों, अनिरुद्ध उमट की कविता में अपने आसपास और रोज़मर्रा की सच्चाई के अप्रत्याशित रूप देखना सुखद है। सच्ची कविता जो अल्पलक्षित है उसे हमारे ध्यान के परिसर में लाती है और अलक्षित है उसको बरका कर चलती है। जो हमें सहज दिया गया है उसको पहचानना और जो हमारी आकांक्षाओं- निराशाओं में गुँथा हुआ है उसे दृश्य करना कविता के ज़रूरी काम हैं।
अनिरुद्ध उमट की कविता बिना अपना हाहाकार मचाएँ या कि दूसरों के लिए कनफोड़ चीखपुकार किये भाषा और अभिव्यक्ति की शान्त लेकिन स्पन्दित गति से हमारे जाने हुए के भूगोल को स्पष्ट और विस्तृत करती है। उसमें निराधार आशावाद नहीं है लेकिन अथक चौकन्नापन हर पल मौजूद और सक्रिय है। वह ऐसी कविता है जो जब यह देखती है कि सब घरों के दरवाज़े बन्द थे तो इसका जतन भी करती है कि लोग न रह जायें अकेले । वह अगर हर नाम के साथ गलत आदमी का चेहरा ताड़ जाती है तो उसकी नज़र से साधारण घटना का यह असाधारण रूपक नहीं छूटता कि दूर कोई तोता/वीरान आसमान को/चोंच में लिये उड़ता होगा ।
अनिरुद्ध उमट ने बड़ी बी, अली मियाँ, पिता, बेटी, प्यास, नमक, पत्नी, दोस्त के पिता, चीजें, कुआँ, कपूरगन्ध, सन्दूक आदि के इर्दगिर्द अपना काव्यसंसार बसाया है जिसमें घर की गन्ध और स्पन्दन, बाहर का दबाव तथा तनाव, स्मृतियाँ और छबियाँ सब रसी-बसी हैं। उनकी कविता हमारी सहचर, हमारे साथ आज की दुनिया में हिस्सेदार है और ठिठककर ऐसी सचाइयों को देखने समझने का न्यौता भी देती है जो हम कई बार नज़रन्दाज़ करते हैं। भले उनका इरादा यह है कि हम क़िस्सों में कोई हेरफेर नहीं करें उनकी कविता जो क़िस्सा बयान करती है वह सौभाग्य से वही नहीं है :
जो लोग खोज में नहीं हैं, वे प्रेम में हैं। उन्हें डर लगता है सन्दूक से । उनका प्रेम गठरी है। वे उसे लिये नदी में उतरते हैं तो वह मार्ग छोड़ देती है।
-अशोक वाजपेयी
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