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Ret Mein Aakritiyaan

Hardbound
Hindi
9789357757782
1st
2024
106
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रेत में आकृतियाँ -
कवि प्रकाश शुक्ल के इस तीसरे कवितासंग्रह में रेत और नदी के बीच दिक् और काल के बीच तथा ठहराव और बहने के बीच देखने के नये सूत्र को प्रस्तावित करती है। प्रकाश शुक्ल का यह संग्रह इस अर्थ में विगत वर्षों में आये अनेक कविता-संग्रहों से कुछ अलग है कि यह सिर्फ़ रेत और जल के बिम्बों और रूपकों को ही केन्द्र में रखकर रची गयी कविताओं का संग्रह है। दरअसल यहाँ धुरी एक है लेकिन उसको छवियाँ अनेक हैं। रेत के ही नहीं, जल के भी मन में अनेक संस्मरण हैं। यहाँ रेत नदी का अनुवाद नहीं, उसका विस्तार है। कहा जा सकता है कि रेत की आकृतियाँ नदी के अन्तरलोक का बाह्यीकरण है और रेत के भीतर बहती नदी, रेत के बाह्यीकरण का आभ्यन्तर है। नदी का तट जो एक विशाल कैनवास में परिणत हो गया है, उसमें कलाकार के हाथों की छुअन को श्रीप्रकाश शुक्ल अदीठ नहीं करते, हालाँकि वह यह भी मानते हैं कि कलाकार के स्पर्श से अनेक आकृतियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद उभरती चली आती हैं और ये आकृतियाँ कहीं-न-कहीं हमारी विस्मृति के विरुद्ध इस कैनवस को विस्तार देती हैं, जिसमें अनगिनत संस्कृतियों के स्वर की अनुगूँज मौजूद है।
इन कविताओं की लय रेत में बनती-मिटती, हवा और नदी की लय के साथ जुड़ती-मुड़ती लहरों जैसी ही है। इनमें आये देशज शब्द और मुहावरे नदी और रेत की आकृतियों को उसके भूगोल से कभी विलग नहीं होने देते; लेकिन इन कविताओं में न रेत ठहरी हुई है, न नदी। रेत में भी एक गति है और नदी में भी। गति ही उनकी पहचान को परिभाषित करती है।
श्रीप्रकाश शुक्ल की इन कविताओं को पढ़ते हुए हम कई बार नदियों, समुद्रों और उनके रेतीले तटों पर बनी आकृतियों के पास जाते हैं और वापस कविता के पास आते हैं। आवाजाही की इस सतत प्रक्रिया के बीच ये कविताएँ स्मृतियों के साथ एक पुल बनाने का काम करती हैं।—राजेश जोशी

श्रीप्रकाश शुक्ल (Shriprakash Shukla)

श्रीप्रकाश शुक्ल  18 मई, 1965 को बरवाँ, ज़िला सोनभद्र (उ.प्र.) में एक मध्यवर्गीय किसान परिवार में जन्म। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में। उच्चशिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। 1991 में हिन्दी साहित्य मे

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