मैंने फ़िराक़ को देखा था -
स्व. रघुपति सहाय 'फ़िराक़' या फ़िराक़ गोरखपुरी भारतीय अदबी दुनिया की अकेली ऐसी शख़्सियत हैं, जिसे उनके रहते, और उनके जाने के बाद भी एक पहेली की तरह पेश किया जाता रहा है। लेकिन अगर वे पहेली थे, या हैं, तो उसी तरह जैसे यह समूची क़ायनात। अद्भुत वैविध्य है फ़िराक़ की शख़्सियत में, लेकिन बिखराव से उसका कोई रिश्ता नहीं।
फ़िराक़ के अज़ीज़ दोस्त, साहित्य सचिव व सहयोगी रहे रमेशचन्द्र द्विवेदी की यह कृति उसी महान शायर और अभी तक ठीक से न समझी गयी शख्सियत को उसकी पूरी बुलन्दी के साथ समझने की शायद पहली ही कोशिश है; हिन्दी में तो निश्चय ही। और इस कोशिश के कुछ आयामों को स्वयं लेखक के ही शब्दों में रखना बेहतर होगा - “फ़िराक़ की शख़्सियत पर बोलना या लिखना बड़ी टेढ़ी खीर है। समझिए कि उस्तरे की धार पर चलना है।...विश्वविद्यालय में दाख़िला लेने के बाद मैंने तय किया कि फ़िराक़ से मिलूँगा, और देखूँगा एक जीनियस को, एक प्रेत को, एक रूह को, एक औघड़ को, एक अवधूत को और एक विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर को !... मैं फ़िराक़ साहब के साथ तीस साल तक रहा। बोलता कम था, सुनता ज़्यादा था । हर पहलू से, हर ज़ाविए से उन्हें समझने की कोशिश करता था। उन्हें समझने के लिए ज़िन्दगी की उन मनाज़िल से होकर गुज़रना ज़रूरी था जिनसे फ़िराक़ जिस्मानी, रूहानी, शऊरी और तहतुत्तशऊरी तौर पर गुज़र रहे थे ।...दरअसल फ़िराक़ एक नादान बच्चे की मासूमियत लिये हुए इन्सान थे। दूसरों और फ़िराक़ में जो फ़र्क़ था, वह यह कि वे एक सच्ची, ईमानदार और नामुरादाना ज़िन्दगी बसर करते थे । मैंने उस सत्य के कई मुख़्तलिफ़ मुज़ाहिरे देखे जिसका नाम फ़िराक़ था, मगर हक़ीक़त एक ही थी कि फ़िराक़ वही थे । हर रूप में वही ।... फ़िराक़ की शायरी के जीनियस का जौहर या तत्त्व है- तमाम चीज़ों को, सारी कायनात को, ज़र्रे-ज़र्रे को, इन्सान-इन्सान को, इन्सानी ज़िन्दगी के दर्द को इन्सानी ज़िन्दगी के दर्द से, शदीद लगाव से जोड़ने का फ़न ।... फ़िराक़ के भीतर बड़ा भयानक नरक भी था, और इसी नरक से होकर स्वर्ग के वैभवपूर्ण राज्य तक पहुँचने की दास्ताँ भी थे फ़िराक़..."
ज़ाहिर है, रमेशचन्द्र द्विवेदी अपनी इस पुस्तक में फ़िराक़ साहब की ज़िन्दगी की ऐसी ही विलक्षणताओं से हमें बेहद आत्मीयता, रोचकता और ऑथेंटिक ढंग से परिचित कराते हैं।
★★★
एक नाजुक और दर्दनाक अलमियाँ मेरी नफ़सियाती ज़िन्दगी का यह रहा है कि अज़वाजी ज़िन्दगी का गम ज़हर की तरह मेरी रंग-रंग, मेरे लहू के हर क़तरे में, मेरे गोश्त व पोस्त और मेरे पूरे वजूद पर इस तरह मुसल्लत हो चुका था कि बाप का मरना, दो जवान भाइयों का मरना, जवान बेटी का मरना, एक बदनसीब ख़ब्तुलहवास बेटे की ज़िन्दगी और ऐन जवानी में उसकी खुदकुशी या किसी भी दूसरे ग़मअंगेज़ वाक़ये से भरपूर अन्दाज़ में खुलकर मुतास्सिर होने की सलाहियत मुझ में बाक़ी नहीं रही थी । ऐसा मालूम होता था कि अज़वाजी ज़िन्दगी का ग़म मुसलसल और मुस्तक़िल तौर पर मेरा गला घोंट रहा है और इसी हालत में दूसरे ऐसे सानेहों का शिकार होना पड़ा। लेकिन इनके एहसास की दौलत से महरूम ही रहना पड़ता था। यही हाल इन वाक़यात का था जिन्हें खुशी का मौक़ा कहा जा सके। मसलन एफ. ए. के इम्तहान में सातवीं पोज़ीशन लाना, और बी. ए. के इम्तहान में चौथी पोज़ीशन लाना कामयाब से कामयाब शेर पर ज़बरदस्त दाद पाना, दूसरों से अपनी तारीफ़ सुनना, पण्डित जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी की क़द्रदानी और हिम्मत अफ़ज़ाई, मुल्क भर में मशहूर हो जाना वगैरह ये तमाम खुशी के मौके और खुशी की बातें एक ज़हर आलूदा शरबत बन जाती थी। हर वक़्त दिल में हाय-हाय मची रहती थी और एक ही सबब से मची रहती थी। दूसरी हाय-हाय और दूसरी हँसी-खुशी के लिए दिल में सकत और सलाहियत नहीं रह गयी थी। खुशी तो दूर रही, गम मौकों पर भी खुलकर ग़मज़दा न रह सकने का गुम मेरे अन्दर एक नाक़ाबिले बयान कैफ़ीयत पैदा करता रहा है । नफ़सियात के समझने वाले ही इस बात को समझ सकते हैं और मुझ पर यह ठेठ कहावत सादिक़ आती है कि 'मारे और रोने न दे ।'
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