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अक्सर चित्रकार कहते हैं हम नहीं बोलते, चित्र बोलते हैं। चित्रभाषा चाक्षुष होती है और कई बार उसे वैचारिक प्रत्ययों में समझने-बदलने से उसकी ऐन्द्रियता क्षत-विक्षत हो जाती है। लेकिन आधुनिक समय में ऐसे चित्रकार हुए हैं जो चित्रों से अलग भी बोलते रहे हैं। अमूर्त्तन के युवा चित्रकार मनीष पुष्कले उन्हीं में से हैं। युवा लेखक और कलामर्मज्ञ पीयूष दईया से उनकी बातचीत का यह वृत्तान्त कई अर्थों में अनूठा है। उसमें क्या पूछा गया उसे गायब कर दिया गया है: कृष्ण बलदेव वैद ने उसे उचित ही "उपस्थिति और अनुपस्थिति का खेल कहा है। दूसरे, एक चित्रकार बड़े वितान पर सोचता है और वैसा करते हुए अपने लिए जो भाषा गढ़ता है वह हिन्दी की प्रचलित कला - भाषा से बिलकुल अलग और नयी है। कई बार उसके थोड़े से अटपटेपन को उसमें चरितार्थ मार्मिकता या वैचारिक सूक्ष्मता ढाँप लेती है। |
बहुत सारे अंश हैं जो तुरन्त ध्यान आकर्षित करते हैं :
कुछ मूर्तियों को देखकर लगता है क्या बात है, पत्थर में क्या दिगम्बरत्व आ गया है? अलंकार लाना अपेक्षाकृत आसान है, लेकिन प्रकृति में खड़ी चट्टान को और दिगम्बर कर देना असम्भव। गांधार काल के मूर्तिशिल्प में बुद्ध के काँधे से जा रहा दुपट्टा पारदर्शी लगता है। उनका चीर दो रेखाओं के रूप में दिखता है जैसे दो जनेऊ पड़े हों ।
वहाँ दिगम्बरत्व पारदर्शी (आलोक) है।
यह समझ पुख्ता होने लगी कि चित्र में कहीं तिरोहन चाहिए। तिरोहित करना बहुत जरूरी है। चित्रांकन के दौरान वह स्वयमेव गढ़ता चला जाता है जो अचित्रितांश है और यह चित्र के सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सों की तरह उभर आता है। चित्र की जगमगाहट, फुसफुसाहट, ज्वलन्तता और उसका जीवन उसके छोड़ने में है। सब अपने तरीके से किसी न किसी रूप में कुछ न कुछ गढ़ते हैं।....
वान गॉग से ले कर रोथको तक ने आत्महत्या कर ली थी। क्या कारण थे? क्या वे दृश्य के दारुण या अवकाश के अदम्य तक पहुँच गये थे? इसी प्रखर का --दूसरे सन्दर्भ में गायतोण्डे में एक भिन्न रूपान्तरण है। वे कैनवस के सामने सालों तक बिना चित्र बनाये बैठे रहे। उन्होंने आत्महत्या नहीं की बल्कि वे मृत्यु को साधते रहे। मृत्यु को एक क्षणिक घटना हो जाने देने के बजाय, मानो उसे निरन्तर कर दिया। सालों के इन्तज़ार करने के बाद उनसे चित्र बने। उनके लिए चित्र न बनने के अवधि-अन्तराल गहरे साक्षात्कार का निमित्त बने। गायतोण्डे एक किस्म की समाधि में रहे : बोध घटा, चित्र प्रगट हुए।
स्वयं एक चित्रकार की रचना-प्रक्रिया, वैचारिक दृष्टि और भावक्रिया समझने में मदद करने के अलावा यह पुस्तक कला की कई नयी-अछूती भावछटाएँ प्रस्तुत करती है। और हमें कला मात्र को नये ढंग से देखने-समझने का न्योता देती है।
- अशोक वाजपेयी
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