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वे दिन वे लोग -
वे दिन वे लोग राधा बहन के संस्मरणों के बहाने एक सदी की कहानी है। यह उत्तराखण्ड की गाथा कहती है और देश की भी। आज़ादी से पहले का परिदृश्य इसमें दिखता है और उससे ज़्यादा आज़ादी के बाद का। यह एक ग्रामीण लड़की के सक्रियतापूर्वक 90 साल पार कर जाने और इन दशकों के सामाजिक आन्दोलनों की कहानी भी कहती जाती है। सरला बहन की शिष्या और गांधीवादी विरासत को सँवारने वाली राधा बहन की सक्रिय सामाजिकता और जन आन्दोलनों की ऊष्मा इन संस्मरणों में रची-बसी है।
★★★
हाल के सालों में उन्हें भी राजसत्ता के अहंकार और छोटेपन का अहसास हुआ। संवादहीनता, कुतर्क और अफ़वाह पर टिकी राजनीति से उन्हें दो-चार होना पड़ा। पर जनशक्ति पर उनका विश्वास क़ायम रहा। साम्प्रदायिकता, जातिवाद, धार्मिक संकीर्णता, गरीबी और आर्थिक तथा लैंगिक गैर बराबरी के साथ कारपोरेट्स के आगे नतमस्तक राजनीति के बीच निराश तो हर कोई है पर वे इसे सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए ही नहीं बल्कि सभी भारतीय नागरिकों के लिए चेतावनी, चुनौती, चिन्गारी और मौक़ा मानती हैं।
-भूमिका से
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