“हिन्दी में संस्मरणों को गम्भीरता से नहीं लिया जाता । संस्मरण हिन्दी की ओ.बी. सी. विधा मानी जाती है। उसे उस लेखक का लेखन माना जाता है जो चुक गया है, जो अपने अतीत को गरिमा मंडित करना चाहता है, जो दूसरों से अपनी लगी का हिसाब चुकाना चाहता है और जो संस्मरणों की गेंडी पर चढ़कर दूसरों से कुछ ज्यादा आदमकद दिखाना चाहता है। हिन्दी में एक शब्द बड़ा प्रचलित है-प्रातः स्मरणीय। प्रातः स्मरणीयों की बुराइयाँ, उनकी कमियाँ, उनके ऐब देखने या दिखाने का रिवाज़ हमारे यहाँ नहीं है। और जो जीवित हैं, उन पर संस्मरण लिखना व्यावहारिक नहीं माना जाता। इसलिए मरे हुओं के बारे में, जीवितों के बारे में सच बोलने की हमारे यहाँ सख़्त मुमानियत है। 'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियम्' के सुभाषित का संस्मरण लेखन में बड़े नेम धरम से पालन किया जाता है। मैंने अपने संस्मरणों में इस सुभाषित का रौब नहीं माना। जीवितों को भी याद किया, और दिवंगतों को भी। जीवितों को इसलिए कि यदि मैं झूठ बोल रहा होऊँ तो कोई भी काला कौआ मुझे काट ले। दिवंगत तो खैर न कुछ सुनते हैं, न कुछ पढ़ते हैं। इन संस्मरणों ने मेरे कुछ मित्रों को भूतपूर्व की श्रेणी में डाल दिया है। कुछ को इन संस्मरणों में मेरी भावभंगी मेरा भंगीभाव लगा है। भंगीभाव से मैं इनकार नहीं करूँगा।"
इसी पुस्तक की भूमिका से
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