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'जाति' और 'लिंग' दोनों ही असमानता, सामाजिक विभेद और वर्गीकृत व्यवस्था के जटिल रूप हैं, जिन्हें एक साथ जोड़कर शायद ही समझा गया है, विशेषकर औपनिवेशिक भारत के सन्दर्भ में। इन दोनों ने सामाजिक परिवर्तन और विरोध की भाषावली भी अपनायी है। किताब जाति और लिंग : दलित, सवर्ण और हिन्दी प्रिंट संस्कृति औपनिवेशिक उत्तर भारत में जाति के इतिहास को लैंगिक नज़रिये और लिंग के इतिहास को जातीय नज़रिये से देखने-समझने का आमन्त्रण है, जिसमें प्रिंट-सार्वजनिक- लोकप्रिय संस्कृति के साथ उनके पेचीदे सम्बन्धों की पड़ताल की गयी है। लिंग और जाति-विरोधी इतिहासशास्त्र के संकेत चिह्नों के बीच स्थित यह किताब भारतीय स्त्रीवादियों और दलित इतिहासकारों के सैद्धान्तिक और तथ्यपरक विचारों का विस्तार करती है। एक सदी पहले के उत्तर भारत के हिन्दी प्रकाशनों के विशद मन्थन में लेखिका 'प्रिंट में चित्रण/प्रतिचित्रण' को अपना आलोचनात्मक औज़ार बनाती हैं, जिसके ज़रिये वो आम तौर पर दलितों और ख़ास तौर पर दलित स्त्रियों की सवर्णीय बुनावट के वर्चस्वशाली वैचारिक विमर्श की समीक्षा करती हैं। साथ ही वो दलित प्रति-स्वरों और एजेंसियों में निहित मुक्तिकामी सम्भावनाओं को भी सामने लाती हैं। जाति और लिंग के एकल चश्मे से चारु उत्तर भारत की अनेक सांस्कृतिक निर्मितियों को रोशन करती हैं- दलित स्त्रियों का कुलटा, पीड़िता और वीरांगना के रूप में चित्रण, दलित पुरुषत्व का निर्माण और अभिव्यक्ति, दलित धर्मान्तरणों के लैंगिक आयाम और दलित देवियों और गीतों के रूप में धार्मिक-सांस्कृतिक लोकप्रिय उभार। यह किताब जाति और लिंग अध्ययन में एक महत्त्वपूर्ण अगला पड़ाव है और इतिहास, स्त्रीवादी, दलित, समाजशास्त्रीय, उत्तर भारतीय और भाषाई साहित्य में उल्लेखनीय योगदान ।
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