झारखण्ड में परम्परागत स्वशासन की परम्परा है। समय के साथ इसके स्वरूप में बदलाव जरूर आया है लेकिन मूल में स्तर पर अपना शासन ही रहा। सामुदायिक और सामूहिक भागीदारी इस परम्परागत लोकतान्त्रिक स्वशासन का आधार है। परम्परागत स्वशासी व्यवस्था न सिर्फ़ राजनीतिक संगठन है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों तथा संसाधनों तक लोगों की पहुँच और संसाधनों को गाँव के हित में इस्तेमाल करने का एक निकाय भी है। तक़रीबन सभी जनजातीय गाँवों में किसी-न-किसी रूप में स्वशासी व्यवस्था कायम है। परम्परागत प्रधान हैं और तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी परम्परागत स्वशासी व्यवस्था आज भी विद्यमान झारखण्ड के 50 फ़ीसदी से ज़्यादा इलाक़े अनुसूचित क्षेत्र हैं और पेसा के तहत आते हैं। यहाँ परम्परागत स्वशासी व्यवस्था भी किसी-न-किसी रूप में क़ायम है। त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था और आदिवासी स्वशासी व्यवस्था के अन्तःसम्बन्धों को लेकर राज्य में व्यापक बौद्धिक बहस छिड़ी हुई है। वॉलेन्ट्री सर्विसेज ओवरसीज (वी.एस.ओ.) ने स्वयंसेवी संस्था मंथन युवा संस्थान के साथ मिलकर झारखण्ड में परम्परागत स्वशासी व्यवस्था को अनुसूचित क्षेत्र में पंचायती राज विस्तार अधिनियम (पेसा) के परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने और दोनों व्यवस्थाओं की विशिष्टताओं और विविधताओं के बीच अन्तःसम्बन्ध तलाशने के उद्देश्य से एक अध्ययन किया। लगभग 18 महीने के इस अध्ययन में झारखण्ड की पाँच जनजातीय समुदायों उराँव, मुण्डा, हो, संताल और पहाड़िया की परम्परागत व्यवस्था को नज़दीक से जानने-समझने की कोशिश की गयी। इस अध्ययन से हमारी समझ बनी है कि यदि परम्परागत स्वशासी व्यवस्था से जुड़े लोगों को विकास के परिप्रेक्ष्य में क्षमतावर्द्धन किया जाय और विकास एजेन्सियों के साथ तारतम्य और अन्तःसम्बन्ध विकसित किये जायें तो पेसा के मूल उद्देश्यों के आलोक में कमज़ोर समुदायों के सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त हो पायेगा।
सुधीर पाल (Sudhir Pal)
सुधीर पालपेशे से पत्रकार, उप-सम्पादक दैनिक राँची एक्सप्रेस, जनमुद्दों पर नियमित लेखन, पी. बी. एल. नज़र टेलीविज़न में अवैतनिक सम्पादकीय सलाहकार । सामाजिक सरोकारों की अभिव्यक्ति 'संवाद मन्थन', फ