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औपनिवेशिक समय में जब शासन ने आदिवासियों से उनकी जमीन का मालिकाना सबूत माँगा तो कचहरी में आदिवासियों के साथ पत्थर भी खड़े हुए। अंग्रेजों की अदालत ने आदिवासियों के पक्ष में पत्थरों की गवाही को स्वीकार नहीं किया। उनकी जमीन पर सेंध लगाने के लिए अंग्रेज़ों ने उनके पत्थरों के प्रयोग पर निषेध लगाया। उसके बाद जब-जब आदिवासियों ने अपनी ज़मीन का दावा किया, तब-तब शासन ने उनकी 'पत्थलगड़ी' पर निषेध लगाया। सहजीविता और स्वायत्तता को कुचलने की शासन की साजिश बहुत पुरानी है। दुखद है कि आज भी कई आदिवासी गाँव 'पत्थलगड़ी' करने के आरोप में देशद्रोही माने गये हैं। आज जब फिर से आदिवासियों से उनकी जमीन का पट्टा माँगा जा रहा है तो पत्थर फिर से उनके पक्ष में गवाही के लिए खड़े हुए हैं। इस बार आदिवासियों के साथ केवल पत्थर ही नहीं खड़े हैं बल्कि उनके साथ कविता भी खड़ी हो गयी है।
अब कविता के स्वभाव पर बात करने के लिए ज़रूरी हो गया है कि पत्थरों के स्वभाव की बात की जाये। पत्थर सिर्फ आदिवासी जीवन के गवाह नहीं हैं। वे छाँव देने वाले पेड़ों के बारे में जानते हैं। वे नदियों के बारे में जानते हैं जिनके गर्भ में केवल मछलियाँ ही नहीं होतीं बल्कि किसानों के सहोदर भी होते हैं। वे जंगलों, पहाड़ों और सम्पूर्ण पारिस्थितिकी के बारे में जानते हैं। वे समूची मानव सभ्यता के गवाह हैं। वे मनुष्य की भूख के बारे में सबसे ज्यादा जानते हैं। वे मनुष्य के भटकाव को जानते हैं। वही हैं जो गलत रास्ते पर चलते हुए राहगीरों के पाँव में ठोकर बनकर लगते हैं और नये रास्तों की खोज कराते हैं।
यह पत्थरों पर निषेध लगाने का सरकारी समय है। यह पत्थरों को सभ्यता के नाम पर जमींदोज कर देने का क्रूर समय है। ऐसे में कविता वस्तुओं की नक्काशी की कविता नहीं हो सकती। पत्थरों से देव- मूर्तियों का शिल्प उकेरने की कविता तो कतई नहीं हो सकती। यह सत्य के पक्ष में गवाही देने वाले की अनगढ़ता को स्वीकारने वाली कविता होगी।
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