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फ़ाइल पढ़ि पढ़ि -
अपने पर हँसना कोई सहज कार्य नहीं है। गोपाल चतुर्वेदी सरकारी तन्त्र के अंग रहे हैं और अपने और अपने तन्त्र पर हँसने का कठिन कार्य उन्होंने फ़ाइल पढ़ि-पढ़ि में बखूबी किया है।
जनतन्त्र में सरकारी तन्त्र के तिलिस्म को तोड़ना जायज ही नहीं ज़रूरी भी है। बिना किसी कटुता और लाग-लपेट के स्थितियों और पात्रों के चित्रण द्वारा गोपाल चतुर्वेदी ने इस काम को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है। इसीलिए फ़ाइल पढ़ि-पढ़ि सरकारी अजायबघरों-जैसे दफ़्तर का एक रोचक व प्रामाणिक दस्तावेज़ बन गया है। इसके पन्नों में चपरासी, दफ़्तरी, बाबू, अफ़सर सब जी उठे हैं। वे निकम्मे हैं, नियम की वजह से या सहज काहिली से, पर सब इसी देश, काल और समाज के पात्र हैं। गोपाल चतुर्वेदी के व्यंग्य की यही विशिष्ट कुशलता है कि उन्होंने आम आदमी के साथ व्यवस्था की जड़ता और संवेदनहीनता से सामान्य कर्मचारी की त्रासदी को भी जोड़ा है। दफ़्तर में इन्सान ही नहीं, चूहों, कबूतरों और मक्खियों-जैसों का भी वास है। फ़ाइल पढ़ि-पढ़ि में इनका इस्तेमाल सशक्त प्रतीकों के रूप में हुआ है, जो इस व्यंग्य की एक और विशिष्टता उजागर करता है । वास्तव में स्थितियों का रोचक और वस्तुनिष्ठ चित्रण, 'विट' का सहज प्रयोग, विरोधाभासों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति जहाँ गोपाल चतुर्वेदी के व्यंग्य के प्रहार को तेज़ धार देती है, वहीं करुणा का समावेश उसे सशक्त बनाता है। और शायद अपने समकालीनों से अलग यही उनकी पहचान भी है।
- तो आप भी खोलिए 'फ़ाइल' को और कोशिश कीजिए कि बिना पूरी 'पढ़ि' बन्द कर दें। लगता नहीं कि कर पाएँगे !
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