मुक्तिबोध संचयन - स्वाधीनता के बाद की हिन्दी आलोचना में मुक्तिबोध एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नाम है। वह जितने महत्त्वपूर्ण कवि हैं उतने ही महत्त्वपूर्ण आलोचक भी हैं। कविता की, विशेष रूप से फ़ैंटेसी की रचना प्रक्रिया पर इतनी गम्भीरता से पहले किसी आलोचक ने हिन्दी में विचार किया हो याद नहीं पड़ता। उनकी साहित्यिक डायरी सिर्फ़ रचना प्रक्रिया या साहित्यिक सवालों पर ही बहस नहीं करती बल्कि वह एक क़िस्म की सभ्यता समीक्षा भी है। वह जीवन विवेक और साहित्य विवेक के बीच के सम्बन्धों की भी तलाश करती है। उनकी 'कामायनी : एक पुनर्विचार' ने कामायनी को देखने की एक नयी दृष्टि दी। इसके अतिरिक्त मुक्तिबोध नयी कवितावादी कवियों और चिन्तकों से इस अर्थ में भी अलग हैं कि उन्होंने नये कविता के कवियों की तरह छायावाद या प्रगतिवाद की उपलब्धियों से कभी पूरी तरह से इनकार नहीं किया। हमने इस संचयन में हिन्दी कविता की परम्परा के अलग-अलग कालखण्डों पर मुक्तिबोध द्वारा लिखे गये लेखों को सम्मिलित किया है। संचयन की एक सीमा है, फिर भी बड़े हद तक पाठक को इस संचयन से मुक्तिबोध को जानने और समझने में मदद मिलेगी।
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