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मुताह : एक शोधपरक अध्ययन -
मुताह एक ऐसी शादी है जिसका अन्त निश्चित होता है । यह एक निश्चित समय के लिए एक निश्चित रक़म के बदले स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध है। मुताह का शाब्दिक अर्थ आनन्द है। अरबी शब्दकोश भी इसे लुत्फ़, मज़ा या आनन्द के रूप में ही परिभाषित करते हैं। कुछ अध्ययनों में मुताह में शरीक होने वाली औरत को मुस्ताज़रा या किराये की महिला भी कहा गया है। सामान्य तौर पर पैग़म्बर मोहम्मद के जीवनकाल में और उसके बाद शिया इमामों और सुन्नी खलीफ़ाओं के समय में अस्थायी शादी के लिए मुताह शब्द का इस्तेमाल होता था। न्यायशास्त्र और धर्मशास्त्र की पुस्तकों में भी इसका उल्लेख मिलता है ।
क़ानून समय की माँग के अनुसार बनते और बदलते रहते हैं। वह स्थायी कभी नहीं होते । यह किताब मुताह के ऐतिहासिक परिदृश्य, मुताह की वैधता, उसके स्रोत पर रौशनी डालने के साथ ही जो बड़ा सवाल उठाती है
वह है स्त्री गरिमा का सवाल । किताब में शामिल कुछ महिलाएँ अपनी कहानी भी कहती हैं जो इस विवाह की शिकार हुईं, उनमें से कुछ की मौत भी हो गयी और जो जीवित हैं वो अनेक परेशानियों से दो-चार हो रही हैं ।
आज के समय में स्त्री गरिमा के सवाल को धर्म की अपनी-अपनी व्याख्या और समझ के दायरे से बाहर निकालकर देखने की ज़रूरत है । बात यह भी है कि धर्म की अपनी रोज़मर्रा के जीवन में क्या जगह और स्त्री के जीवन पर क्या प्रभाव है, इस बहस में स्त्री अस्मिता के सवाल कहाँ पीछे रह जाते हैं उसे भी देखना अत्यन्त आवश्यक है। स्त्री महज़ आँकड़ा नहीं है जिसे कम-ज़्यादा बताकर उसकी पीड़ा को कम-ज़्यादा आँका जाये । सम्पूर्ण भारत में न सही आज भी भारत के कई हिस्सों में ऐसी परम्पराएँ चलन में बनी हुई हैं। इस पुस्तक के ज़रिये मुताह के सम्बन्ध में सारी जानकारी एकत्र कर उसे आपके सामने प्रस्तुत करने की एक कोशिश की गयी है ।
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