“कांग्रेस बापू की इस बुनियादी हिदायत को कि पार्लिमेंट्री हुकूमत का सुधार उसके अन्दर रहकर नहीं हो सकता, उसका सुधार उसके बाहर रहकर ही हो सकता है, नहीं समझ सकी । बापू दरअसल कांग्रेस को अंग्रेज़ी सरकार को निकालने का साधन नहीं बनाना चाहते थे। वह अपने तौर पर उसके लिए इससे बहुत ऊँची जगह चुन चुके थे और उन्हें आशा थी कि अंग्रेज़ी सरकार से जीतने के वक़्त तक कांग्रेस में इतनी नैतिक बुलन्दी और दूरदेशी पैदा हो जायेगी कि वह उनके असली मक़सद को समझ सके और उन पर अमल कर सके। वह यह चाहते थे कि कांग्रेस जनता की रक्षा और तरक़्क़ी का और देश की सरकार को जनता का सच्चा सेवक और जनता को देश का राजा और मालिक बनाये रखने का एक टिकाऊ साधन और ताक़त बन जावे, बापू के लिए सच्चे स्वराज का यही पहला क़दम था।
कांग्रेस दुनिया की अकेली और महान् संस्था थी जिसने थोड़ी-बहुत बापू की रहनुमाई में नैतिक प्रोग्राम अपनाकर दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य का बिना फ़ौज और हथियारों के मुक़ाबला किया था। उसने बेमिसाल त्याग और बेग़ज़ सेवा से अपने देश-भाइयों के दिल पर क़ाबू पा लिया था। बापू इस महान् संस्था में उसके भाव फिर से जगाना चाहते थे। सेवा संघ बन जाने की सलाह देने से उनका यह मतलब न था कि उसकी सरकार के मन्त्री और नेता गाँव में बैठकर चरख़ा कातने को अपना काम बना लें। वह यह भी नहीं चाहते थे कि उसके सरकार से हट जाने के बाद उसकी जगह कोई तानाशाही या फ़िरक्क़वाराना सरकार क़ायम हो जाये, बल्कि वह कांग्रेस को राजगद्दी से हटाकर देशरक्षा और देशसुधार के काम उसके सुपुर्द करके तानाशाही या देशद्रोही सरकार के क़ायम होने की आशंका को ही सदा के लिए मिटा देना चाहते थे।"
महात्मा गांधी की वसीयत से उद्धृत ये पंक्तियाँ गांधी के विचारों की ऐतिहासिकता को रेखांकित तो करती ही हैं; साथ ही, यह भी इंगित करती हैं कि देश के आज़ाद होने के पचहत्तर साल बाद भी भारतीय राजनीति में जो उथल-पुथल अपने चरम पर बनी हुई है, उसके परिप्रेक्ष्य में यह पुस्तक कितनी अहम और ज़रूरी भूमिका निभा सकती है।
निस्सन्देह, हर युग के लिए एक दुर्लभ दस्तावेज़ है मंज़र अली सोख़्ता की यह कृति महात्मा गांधी की वसीयत ।
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