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Bihar Ki Virasat Aur Navnirman Ki Chunauti

Shivdayal Editor
Hardbound
Hindi
9788181435507
2nd
2024
188
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बिहार पर जब सोचने बैठें तो आपके हर प्रश्न का जैसे प्रतिप्रश्न (उत्तर नहीं) उछलकर सामने आता है और आपको थोड़ी देर के लिए ऐसा महसूस होता है जैसे आपने प्रश्न पूछ कर कोई ग़लती की, या कि प्रश्न पूछना आपके अधिकार और बूते की बात नहीं। इन दिनों बिहार में सवालों के जवाब मिलने मुश्किल हैं, हाँ, सवालों पर सवाल ज़रूर खड़े किये जा सकते हैं। लेकिन अपने गौरवशाली अतीत के मलबे के ढेर पर बैठे बिहार के बारे में बात सवालों के साथ ही शुरू करनी होगी। क्या तमाम तरह के दूरगामी उद्देश्यों वाले परिवर्तनकारी आन्दोलनों की अगुआई करने वाला बिहार स्वयं अपने लिए जड़, और कहीं प्रतिगामी भूमिका का निर्वाह करता चला आया है? क्या बिहारी समाज अतियों में जीने वाला समाज है? बिहार सामाजिक-आर्थिक विकास की चुनौती स्वीकार करने को तैयार नहीं? क्या हिंसा, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था को बिहार ने संस्कृति के स्तर पर समायोजित कर लिया है? क्या लांछन और उपहास का पात्र बने रहना बिहार की नियति है, यानी कि इसका कुछ नहीं किया जा सकता? बिहार के पास देश और दुनिया को देने को अब कुछ भी शेष नहीं है? वास्तव में बिहार कुछ गहरे सिरे से खुद को बदल रहा है? यदि हाँ, तो इसकी दिशा क्या है, इसका फलितार्थ इसे आगे ले जाने वाला है या और पीछे धकेलने वाला? क्या अब भी बिहार अपने आप में एक सम्भावना के रूप में बचा हुआ है?

शिवदयाल (Shivdayal)

शिवदयाल  शिवदयाल हिन्दी की नयी पीढ़ी केलेखक-कथाकारों में विशिष्ट पहचान रखते हैं। सन् '74 के बिहार आन्दोलन और उनके अनन्तर निकली धाराओं से गहरा जुड़ाव । सन् '85 से 2001 तक उत्तर प्रदेश के अनपरा तापीय

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