पैंतीस साल पहले प्रकाशित हुई आशिस नंदी की यह रंचना मुख्यतः उन मानसिक संरचनाओं और सांस्कृतिक शक्तियों की पड़ताल है जिन्होंने ब्रिटिश भारत में उपनिवेशवाद की संस्कृति के साथ सहयोग या विरोध किया। उत्तर-औपनिवेशिक चेतना के अध्ययन से सम्पन्न इस कृति में भारतीय परम्पराओं के उन तत्त्वों पर विचार किया गया है जो औपनिवेशिक अनुभव के कारण अब पहले जितने मासूम नहीं रह गये हैं। इन पृष्ठों पर उन सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रणनीतियों पर भी गौर किया गया है जिनकी मदद से यह समाज उपनिवेशवाद के अनुभव के बावजूद बचा रह पाया, और उसे अपने आत्म की प्रतिरक्षामूलक पुनःपरिभाषा करने के चक्कर में ज़्यादा नहीं फँसना पड़ा।
इन पृष्ठों पर दो तरह के उपनिवेशवाद अंकित हैं। एक के प्रति अधीनस्थता की जाँच दूसरे के प्रति अधीनस्थता से सचेत होकर की गयी है। नंदी ने पश्चिम को एकल राजनीतिक अस्तित्व के रूप में, हिन्दू धर्म को भारतीयता के रूप में, अथवा इतिहास और ईसाइयत को पश्चिमी के रूप में दिखाया है। इनमें से कोई भी दावा सच्चा तो नहीं है, पर यथार्थ अवश्य है। इस रचना में ऐसी प्रत्येक अवधारणा एक द्वि-अर्थी मुहावरे की तरह है। एक तरफ़ तो वह एक उत्पीड़क संरचना का अंग है, और दूसरी तरफ़ उसका उस संरचना के प्रताड़ितों से गठजोड़ भी है। इसी के मुताबिक़ पश्चिम न केवल साम्राज्यिक विश्व-दृष्टि का अंग है, वरन् उसकी शास्त्रीय परम्पराओं और उसके आलोचनात्मक आत्म से कभी-कभी आधुनिक पश्चिम का प्रतिरोध भी निकलता है। इस पुस्तक के कुछ हिस्सों के लिए भारत में उपनिवेशवाद 1757 में पलासी की लड़ाई में पराजय से शुरू होता है, और 1947 में ख़त्म होता है जब अंग्रेज़ औपचारिक रूप से यह मुल्क छोड़कर चले। गये। लेकिन, किताब के कुछ अन्य हिस्सों के लिए।
उपनिवेशवाद की शुरुआत 1820 के आखिरी सालों में होती है जब संस्कृति के औपनिवेशिक सिद्धान्त के अनुकूल बैठने वाली नीतियाँ पहली बार लागू की गयीं और उसका ख़ात्मा 1930 के दशक में होता है जब गाँधी की प्रति-आधुनिकता ने इस सिद्धान्त की कमर तोड़ दी। किताब में कुछ ऐसे भी हिस्से हैं जिनके लिए उपनिवेशवाद की शुरुआत 1947 में होती है, यानी उस समय जब औपनिवेशिक संस्कृति को मिलने वाले बाह्य समर्थन का ख़ात्मा हो गया। उपनिवेशवाद के इस रूप का प्रतिरोध आज भी जारी है।
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