मीडिया की भाषालीला जन-माध्यम के आर-पार अध्ययन की एक दलील है, चूँकि उनकी परस्पर निर्भरता ऐतिहासिक तौर पर लाज़िमी साबित होती है। यह सही है कि राष्ट्र के बदलते भूगोल के साथ-साथ संस्कृति को देखने-परखने के नज़रिए में बदलाव आते हैं, लेकिन आधुनिक मीडिया- तकनीक और बाज़ार लोकप्रिय संस्कृतियों की आवाजाही के ऐसे साधन मुहैया कराते हैं, जिन पर राष्ट्रीय भूगोल की फ़ौरी संकीर्णता हावी नहीं हो पाती। सरहदों के आर-पार लेन- देन चलता रहता है, चाहे वे सरहदें भाषा की हों, क्षेत्र - विशेष की, राष्ट्र की, या फिर मीडिया की अपनी गढ़ी हुई । छापाखाना लोकप्रिय सिनेमा के लिए कितना अहम है, यह सिने पत्रकारिता के इतिहास से जाहिर है, ठीक उसी तरह जैसे कि दक्षिण एशिया में सिनेमा को 'सुनने' का तगड़ा रिवाज रहा है, जिसके चलते सिनेमा के इतिहास को रेडियो के इतिहास से जोड़कर देखना नैसर्गिक लगता है। साहित्य-आधारित सिनेमा पर बातें करने की रिवायत पुरानी है, लेकिन यह देखने का वक़्त आ गया है कि सिनेमा ने साहित्य की शैली, उसकी भाषा पर कौन से असरात छोड़े। और अपने आरंभिक दौर में वैश्विक इंटरनेट का हिंदी आभासी जगत कैसा लगता था ? ऐसे ही कुछ सवालों और ख़यालों को कुरेदता है यह संकलन, जिसके केंद्र में हमारी आपकी भाषा है।
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