Secular/Sampradayik : Ek Bhartiya Uljhan Ke Kuchh Aayam (CSDS)

Hardbound
Hindi
9789352294923
1st
2018
382
If You are Pathak Manch Member ?

यह पता लगाना उत्तरोत्तर कठिन होता जा रहा है कि हमारे सार्वजनिक जीवन में कौन सेकुलर है और कौन साम्प्रदायिक । दरअसल, राजनीति और विमर्श के दायरे में पाले के दोनों तरफ़ दो-दो हमशक्ल मौजूद हैं । सेकुलर की दो क़िस्में हैं और साम्प्रदायिक की भी । एक अल्पसंख्यक सेकुलरवाद है और दूसरा बहुसंख्यक सेकुलरवाद । इसी तरह एक अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता है और दूसरी बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता। इन हमशक्लों की मौजूदगी से बाक़ायदा वाक़िफ़ होने के बावजूद हम अभी तक इन्हें अलग-अलग करके देखने और समझने की तमीज़ विकसित नहीं कर पाये हैं। दोनों सेकुलरवाद और दोनों साम्प्रदायिकताएँ संघर्ष और एकता के मौकापरस्त समीकरणों में लगातार परस्पर गुँथी रहती हैं। वे व्यवहार के धरातल पर ही नहीं, बल्कि विमर्श के दायरे में भी कभी एक-दूसरे से टकराती हैं तो कभी एक-दूसरे को पनपाती हैं। यह प्रक्रिया पाले के दोनों तरफ़ ही नहीं, वरन् पाले के आरपार एक परस्परव्यापी दायरे में भी चलती है। कभी- कभी वे पाला भी बदल लेती हैं।


इसी कारण से किसी को साम्प्रदायिक कहने का मतलब है एक अंतहीन बहस निमंत्रित करना। व्यवहार के धरातल पर औपचारिक सेकुलर दायरे में साम्प्रदायिक गोलबंदी करते हुए हमेशा सेकुलर दावेदारियाँ करते रहने की गुंजाइश मौजूद रहती है। दूसरी तरफ, सेकुलर शिविर में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सेकुलरवादों का हमशक्ल खेल अपनी अलग-अलग शिनाख्त को सबसे ज़्यादा चुनौती देता है। जो बौद्धिक और राजनीतिक शक्तियाँ साम्प्रदायिक गोलबंदी का सहारा लिये बिना सेकुलर उसूलों को बुलंद करती हैं, वे भी ऊपरी सतह खुरचने पर अपने दावों के मुताबिक़ सेकुलर नहीं रह जातीं। वे साम्प्रदायिक शक्तियों का विरोध तो करती हैं, पर उनका विमर्श और राजनीतिक-सामाजिक कार्रवाई भी बहुसंख्यकवादी या अल्पसंख्यकवादी साम्प्रदायिक विमर्श से ज़मीन साझा करते हुए नज़र आती है। ख़ास बात यह है कि ऐसा करते हुए भी ये तत्त्व खुद को सेकुलर मानते रहते हैं। इससे एक अपरिभाषित और अदृश्य अंतराल बनता है जिसके कारण सेकुलर और साम्प्रदायिक खेमों के बीच एक चौंका देने वाली आवाजाही होती रहती है। न केवल ख़यालों का तबादला होता है, बल्कि गठजोड़ राजनीति के ज़रिये समर्थन आधार भी लिया-दिया जाता रहता है। राजनीति में इसकी मिसालों की कोई कमी नहीं है।


यह किताब इसी सेकुलर/साम्प्रदायिक उलझन को सम्बोधित करने का एक प्रयास है। यह पुस्तक एक निमंत्रण है सेकुलरवाद की एक ऐसी व्यावहारिक ज़मीन तैयार करने का जो दोनों तरह की साम्प्रदायिकताओं का पूरी तरह से निषेध करती हो।

अभय कुमार दुबे (Abhay Kumar Dubey)

विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के भारतीय भाषा कार्यक्रम में सम्पादक। रजनी कोठारी, आशीष नंदी और धीरूभाई शेठ समेत अन्य कई समाज वैज्ञानिकों की प्रमुख रचनाओं का अनुवाद करने के अलावा लोक चिं

show more details..

My Rating

Log In To Add/edit Rating

You Have To Buy The Product To Give A Review

All Ratings


No Ratings Yet

E-mails (subscribers)

Learn About New Offers And Get More Deals By Joining Our Newsletter