हाशिये की कुहरीली छाया से निकलकर स्त्री इधर समय की प्रवक्ता और केन्द्र बिन्दु बन चुकी है। इतिहास में यह स्त्री की एक बड़ी छलाँग' है। बड़ी उपलब्धियाँ हमेशा अपने पीछे संघर्ष की लम्बी लीक लिए आती हैं, जहाँ कुछ दरकनें दिखती हैं तो हौसलों की ऊँची परवाज़ भी है; अपनी ही राख से ही चिनगारियाँ बीन कर नयी पहचान पाती जिजीविषा है तो पूरी ईमानदारी के साथ अपने अन्तर्विरोधों के आत्म-पड़ताल की निर्भीकता भी। हिन्दी कहानी क़दम-दर-क़दम इस चिन्तनशील स्वावलम्बी स्त्री- निर्मिति की प्रक्रिया की साक्षी रही है; हर्फ़-दर-हर्फ़ उसके सपनों और धड़कनों को; विचलनों, द्वन्द्वों और संशयों को उकेरती रही है। लेकिन पितृसत्तात्मक संरचना के दबाव क्या सिर्फ़ सामाजिक आचार-व्यवहार तक ही सीमित हैं? न्ना! वे दबे पाँव आलोचना के ज़रिये साहित्य में भी चले आते हैं जहाँ स्त्री-लेखन को मुख्यधारा के साहित्य के हाशिए पर रखने के आग्रह हैं तो स्त्री-कथाकारों के संघर्षमूलक अवदान को अलक्षित कर देने का दम्भ भी। ज़ाहिर है, यह पुस्तक इसलिए कि स्त्री-कथा-लेखन के नैरन्तर्य को; उसकी विकास-यात्रा की उपलब्धियों को; उसकी विशिष्ट कहन-भंगिमा, शैल्पिक विलक्षणता और सोद्देश्यता को अलग से रेखांकित किया जा सके।
हिन्दी के सौ साल पुराने स्त्री-कथा-लेखन पर लब्धप्रतिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल का विश्लेषण पाठक को एक नयी विचार - यात्रा पर ले जायेगा, ऐसा हमारा विश्वास है । निस्संग विश्लेषण और सघन आत्मपरकता की अन्तर्लीन लहरों की सवारी गाँठते हुए रोहिणी अग्रवाल जिस प्रकार कृति को उसकी संकुचित परिधि से मुक्त कर हमारे अपने काल-खण्ड तक ले आती हैं; और फिर पात्रों के मनोविज्ञान पर गहरी पकड़ बनाते हुए कहानी के पारम्परिक अर्थ में नया अर्थ भरती हैं, वह सचमुच विस्मित कर देने वाला सर्जनात्मक अनुभव है।
यह पुस्तक स्त्री-कथा-लेखन और स्त्री-आलोचना दोनों के निरन्तर विकास की साक्षी है।
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