बलदेव सिंह धालीवाल पंजाबी के बहुविधायी लेखक हैं। उन्होंने भले ही अपनी साहित्य-यात्रा कविता (उच्चे टिब्बे दी रेत-1982) के रूप में आरम्भ की हो लेकिन जब कहानी की ओर मुड़े तब उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मेरा मतलब है, कहानी के ही होकर रह गये। इस दौरान उन्होंने यात्रा-वृत्तान्त, आलोचना पर भी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किया लेकिन कहानी लेखन में भी विशेष रूप से नाम कमाया। धालीवाल का नाम पंजाबी के उन प्रख्यात साहित्यकारों में शुमार है, जो लिखते तो कम हैं, मगर लिखते बहुत बढ़िया हैं। धालीवाल की अब तक कहानियों की दो पुस्तकें ऊपरी हवा और अपने-अपने कारगिल प्रकाशित हुई हैं। इनकी कहानियों ने पंजाबी कहानी के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान को सुदृढ़ किया है।
धालीवाल पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला से बतौर प्राध्यापक/डीन, अलुमनी रिलेशंस सेवानिवृत्त हुए । अध्यापन के दौरान प्राप्त हुए विभिन्न अनुभवों को उन्होंने अपनी कहानी कला में बखूबी प्रयोग किया। 'तोता मैना की कहानी' और 'चींटियों की मृत्यु' कहानियाँ शैक्षणिक संस्थाओं में अन्दरूनी-बाहरी राजनीति के चलन पर आधारित हैं। 'चींटियों की मृत्यु' कहानी मैंने हिन्दी में अनूदित की और साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' में छपी । वहीं से शुरू हुआ उनकी कहानियों के अनुवाद का सिलसिला ।
पंजाब कृषि प्रधान क्षेत्र है। यहाँ बहु-संख्यक लोग कृषि के काम-धन्धों से जुड़े हैं। कृषि के आधुनिकीकरण (हरे इंक़लाब) के कारण मुश्किलें-समस्याएँ भी उत्पन्न होती हैं। इन समस्याओं के बारे में वही आदमी जागरूक रह सकता है जो इस काम-धन्धे की आन्तरिकता को जानता/समझता हो । धालीवाल भले ही प्राध्यापक रहे लेकिन उनका खेतीबाड़ी से जुड़ाव रहा है। उनके बाप-दादा खेती करते रहे हैं। खेतीबाड़ी उनका जद्दी-पुश्ती काम है। इस लिहाज से धालीवाल भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कृषि-कार्यों से सम्बन्धित रहे हैं। खेती से जुड़े नये सभ्यचार का उनकी कहानियों में आ जाना स्वाभाविक है। 'कारगिल', 'लक्ष्मण रेखा' आदि कहानियाँ खेती संकट के दरमियान पैदा हुई समस्याओं को बड़ी गम्भीरता से चित्रित करती हैं।
-भूमिका से
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