हाल से बाहर निकलते वक्त प्रमा के मन में अचानक उस कलाकृति के प्रति तीव्र आकर्षण महसूस हुआ। उसने पीछे मुड़कर शिशु की बगल में उसके प्रति सम्पूर्ण समर्पित उस माँ को देखा । मूर्तिकार ने उसके सारे कोनों को घिसकर उसकी पूरी देह में भरपूर लावण्य को उभार दिया था। गोलाकार सृष्टि की तरह सारी रेखाओं को पूर्णता प्रदान करने वाला फॉर्म । कितना नन्हा शिशु था वह। जैसे वह माँ के शरीर में खो गया था। शिशु तो उपलक्ष्य मात्र था। मातृत्व का यही सर्वश्रेष्ठ रूप था। सीढ़ियों से उतरते वक्त अपना क्षोभ, दूर खड़े रहने का कष्ट सुपर्ण छिपा नहीं पाया। क्या सोच रही थी? पहले कभी यहाँ आ चुकी हो, क्या उस बारे में?
साँझ ढलनेवाली थी। सदर्न एवेन्यू से होकर उनका स्कूटर आगे बढ़ रहा था। माँ और उसकी गोद में उसका नन्हा बच्चा । कितना निश्चिन्त । प्रमा को इतनी देर बाद लगा जैसे वह भी उस बच्चे की तरह ही हो। उसे अपनी माँ बेहद याद आयी। और उस वक्त जब सुपर्ण के सीने से तेज हवा टकरा रही थी, उसके दोनों हाथ स्कूटर के हैण्डिल को कसकर जकड़े हुए थे, तब सुपर्ण की पीठ पर प्रमा अपना चेहरा छिपाये अपने अनजाने सन्तान के वियोग में अपनी उमड़ती हुई रुलाई को किसी तरह सँभाल नहीं पा रही थी।
इसी पुस्तक से...
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