पचास कविताएँ नयी सदी के लिए चयन : केदारनाथ सिंह -
समकालीन हिन्दी काव्य-परिदृश्य में केदारनाथ सिंह उन थोड़े से कवियों में हैं जिनमें नयी कविता अपने उत्कर्ष पर पहुँचती है। लोक गीतों में एक भिन्न प्रकृति का आस्वाद और आधुनिक बिम्बों का टटका स्पर्श लिए कवि केदारनाथ सिंह एक सर्जनात्मक हस्तक्षेप की तरह हिन्दी कविता में आये। ऐन्द्रिय बिम्ब-संवेदन भरे संसार से गुज़रती हुई उनकी काव्य-यात्रा आज आख्यानपरकता के जिस विलक्षण मोड़ तक आ पहुँची है उसमें परस्पर द्वैत और द्वन्द्वों से रचा एक प्रतिलोम संसार का आकर्षण भी है। बल्कि प्रतिलोम से अधिक इसे समानान्तर संसार कहना कहीं अधिक संगत होगा। गाँव और शहर, लोक और आधुनिकता, चुप्पी और भाषा एवं प्रकृति और संस्कृति के समस्त द्वैत-रूप-सम्बन्धों के साथ निरन्तर एक संवाद अन्तर्द्वन्द्व की हद तक चलता रहता है। समस्त विलोमों की प्रतिच्छायाएँ परस्पर साथ चलती रहती हैं- एक-दूसरे को लाँघती हुई! द्वैत-दुविधा और द्वन्द्व से उत्पन्न चीज़ों में रागात्मक सन्तुलन खोजने-बनाने की संवादधर्मी व्यग्रता उनकी काव्य-निर्मिति को एक आधुनिक सूझभरी विशिष्टता देती है। अकारण नहीं है कि आज की युवतर पीढ़ी की काव्य-सर्जना पर कवि केदारनाथ सिंह की छाया दिखाई पड़ती है। अपनी पूरी काव्यात्मकता के साथ एक गहरा प्रतिरोध का स्वर उनकी कविताओं में प्रच्छन्न भाव से रहता आया है। आतंक के बहुत से चेहरे झाँकते हैं... बहुत-सी छायाएँ दबे पाँव चली आती हैं उनकी कविताओं में चुप का चेहरा एक और भाषा का चेहरा गढ़ता है- 'भूकम्प जैसी चुप्पी' का चेहरा। जहाँ 'भाषा के गर्भ में चुपचाप बनती रहती है'। एक और भाषा उनके यहाँ प्रायः चुप का ही आयतन है। चुप का यह आयतन कविता की झोली में जैसे एक अनन्त भरता है।
इधर बाद की कविताओं में उन्होंने सांस्कृतिक बहुलता और काव्य-समय के अनेक रूपों को आख्यान में जिस अन्दाज़ में अपने काव्यानुभव को बुना है वह अपने आप में इतना निराला है कि लगता है उनके इस अभिव्यक्ति रूप ने बहुत कुछ गद्य-रूपों के वैशिष्ट्य को सोख लिया है। अजब अन्दाज़ से उत्तर केदार के काव्य अनुभव में गद्य-रूपों की काव्यात्मक समायी दिखाई पड़ती है। आज के घोर यान्त्रिक जैसे ठूँठ होते जा रहे समय और आकण्ठ अमानवीयता से भरी क्रूर भयावहता के बीच चित्त और चरित्रों की दीप्ति से मण्डित आख्यानपरकता में रागजन्य सौन्दर्य और द्वेषजन्य आतंक के बीच बहते लय-रूपों को काव्य-वैभव के साथ और अनुभव की परिणति को पृथ्वी की लय से जिस तरह जोड़ दिया है, वह अपने आप में बेजोड़ है। केदार जी की कविताओं के भीतर व्याप्त लय में जो अन्तर्निहित गति है वह रचना से इतर हमारे समय के दबाव को भी इंगित करती है।घोर निराशा में भी उम्मीद का एक कंगूरा उनके यहाँ चमकता रहता है। उम्मीद का यह कंगूरा और उजाले की एक कौंध-किरन मनुष्य द्वारा गढ़ी गयी दुनिया में कर्म की पताका का (लहरीला) प्रकाश है। उनकी कविता मानव की उच्चतर मूल्य-चेतना है सौन्दर्यमयी लालसा है और वह भी एक सर्जनात्मक लपट के साथ।
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