Pachas Kavitayen Nai Sadi Ke Liye Chayan : Leeladhar Mandaloi

Paperback
Hindi
9789350008263
1st
2011
112
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पचास कविताएँ : नयी सदी के लिए चयन : लीलाधर मंडलोई -

जन्म : मध्य प्रदेश के छिन्दवाड़ा क़स्बे में 1953 में। समकालीन हिन्दी कविता के एक महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में आठ कविता संग्रह और दो चयन प्रकाशित। सम-सामयिक सांस्कृतिक-साहित्यिक परिदृश्य पर चार पुस्तकें और एक आलोचना कृति भी प्रकाशित हो चुकी है! साहित्यिक अवदान के लिए राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर के अनेक सम्मान व पुरस्कारों से पुरस्कृत, जिनमें मुख्यतः पुश्किन सम्मान, शमशेर सम्मान, रज़ा, नागार्जुन, दुष्यन्त कुमार और रामविलास शर्मा सम्मान (सभी कविता के लिए) प्राप्त हो चुके हैं। साहित्य अकादेमी, दिल्ली से भी साहित्यकार और कृति सम्मान से सम्मानित।

मेरा बचपन सतपुड़ा की घाटी में बीता। मैंने उसका रंगजगत देखा। जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, नदी-नाले, उनकी आवाज़ें सुनीं। और संगीत और उन आदिवासियों से मिला, जिनकी साँसों में सतपुड़ा रचा-बसा था। उन मज़दूरों से मिला जो कोयला खानों में काम करते थे। वे भी सतपुड़ा की पुकारों में डूबे थे। सतपुड़ा की ऋतुओं में सबका मस्त-पस्त बदमस्त जीवन था और राग-रंग।

मेरा जीवन सतपुड़ा का ऋणी है। कविताओं में और उससे बाहर भी। सतपुड़ा के जंगल, दृश्य, मौसम, पशु-पक्षी, नदी-तालाब, और लोग-बाग मेरी स्मृतियों से कभी जाते नहीं। सतपुड़ा मेरे अनुभव की पहली पाठशाला है। इसमें जब भी लौटता हूँ, कविता में नया हो उठता हूँ। मेरी ऐन्द्रिकता, रोमान और अध्यात्म सतपुड़ा के ही कारण हैं। सतपुड़ा के बाहर भी, वह बहुत हद तक सतपुड़ा है। जब प्रकृति बोलती है तो सतपुड़ा ही दुःख-सुख में बोलता है। मेरे रागात्मक सम्बन्ध और स्वप्निलता का लोक, सतपुड़ा के आलोक में जन्मे हैं। और कविताओं की ज़मीन में भी सतपुड़ा गहरे तक विद्यमान है। मेरी तमाम इन्द्रियों को सतपुड़ा ही जीवन्त जाग्रत रखता आया है। कहना न होगा मेरी इन्द्रियों यदि आज भी कविता को उजास से भर पाती हैं तो उनमें सतपुड़ा कहीं-न-कहीं अपनी भूमिका निभा रहा होता है। मैं जब भी कविता में प्रकृति को रचता हूँ, सतपुड़ा अपने वैभव के साथ कहीं ज़रूर मेरे भीतर धड़क उठता है और मैं उसके अनुभवों से गुज़र कर ही नये अनुभवों को जान पाता हूँ। प्रकृति के रहस्यों को जानना, उसे बचाने की कोशिश भी है, जो कदाचित मेरी कविताएँ करती होंगी। वे प्रकृति और मनुष्य के अद्भुत रिश्तों पर बात करते हुए, सृष्टि की अपरिहार्यता को रेखांकित करती हैं। ये कविताएँ सृष्टि की पीड़ा, यातना और आगत त्रासदी के प्रति भी सचेत हैं। गहरे प्रेम और वेदना से उपजी इन कविताओं में कवि के मन को अगर आप पढ़ सकें तो प्रकृति की सिम्त लौटने का विचार ज़रूर बनेगा। अगर ऐसा कुछ हो पाया तो इनकी कोई भूमिका होगी, अन्यथा ये भी खो जायेंगी जैसे सृष्टि से बहुत कुछ धीरे-धीरे ख़त्म होता जा रहा है।

सतपुड़ा के श्रमशील मनुष्य मेरी कविताओं में उपस्थित हैं। आगे अन्दमान-निकोबार द्वीप समूह से लेकर उन तमाम भूलोकों में, जहाँ मैं गया अथवा रहा, वहाँ की प्रकृति और मनुष्य भी मेरे काव्य जगत में आते गये। इस तरह सृष्टि का विश्वबोध आकार पाता रहा और मेरी कविताओं के रंग भी गहराते रहे।
इस चयन को पाठकों को समर्पित करते हुए सन्तोष का अनुभव इस अर्थ में अधिक है कि यह मेरी धरती की कविताएँ हैं।

अन्तिम पृष्ठ आवरण -
पहली बारिश के बाद
केलि का झुटपुटा यह
आकाश में सिहरन
आलिंगन के मनोहारी दृश्य
इतना उत्ताप
कि त्याग के अपने पंख
समागम की सुखद समाधि
बाद इस अपूर्व सुख के
रेंगते हुए धरती की शरण
अब खड़ा होगा
सन्तति के स्वागत में
मनोरम दीमक घर।

लीलाधर मंडलोई (Leeladhar Mandloi)

लीलाधर मंडलोई  जन्म : मध्य प्रदेश के छिन्दवाड़ा क़स्बे में 1953 में। समकालीन हिन्दी कविता के एक महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में आठ कविता संग्रह और दो चयन प्रकाशित। सम-सामयिक सांस्कृतिक-साहित्यिक प

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