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हजारीप्रसाद द्विवेदी को हिंदी निबंध का बादशाह कहा जा सकता है। विचार, रस और व्यंजना से भरपूर जिस विधा को बालमुकुन्द गुप्त, बालकृष्ण भट्ट, महावीरप्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल ने पुष्पित-पल्लवित किया, उसे द्विवेदी जी ने एक ऐसी ऊँचाई पर पहुँचा दिया जिसे अभी तक पार नहीं किया जा सका है। हजारीप्रसाद द्विवेदी का सर्जक रूप उनके निबंधों में जितनी सहजता से खिला है, उसकी तुलना उनके उपन्यासों से ही की जा सकती है। इन निबंधों में चिंतन की सघनता, कबीरी फक्कड़पन और कल्पना की स्वच्छंदता का अद्भुत सम्मिश्रण है। द्विवेदी जी को गप्प से बहुत लगाव था, अतः स्वाभाविक ही है कि ये निबंध गप्प रस में डूबे हुए हैं, लेकिन इनके पीछे सांस्कृतिक प्रश्न, साहित्य और भाषा के मुद्दे, परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व तथा पुरातत्त्व और इतिहास की गुत्थियाँ-सभी का गहरा और आत्मीय विवेचन मिलता है। द्विवेदी जी का मानना था कि अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य में हजारीप्रसाद द्विवेदी शायद ऐसे ही अवधूत हैं। उनका मन पेड़-पौधों, चिड़ियों, ऋतुओं और लोक जीवन के विविध पहलुओं से ले कर संस्कृति के गूढ़ प्रश्नों तक सहज ही रमता है हिंदी साहित्य की मर्मज्ञ और विख्यात आलोचक निर्मला जैन ने निबंधों का चयन इस दृष्टि से किया है कि हजारीप्रसाद द्विवेदी का कोई प्रसिद्ध निबंध छूटने न पाए और पाठकों को कुछ नयी सामग्री भी मिले। निबंध रसिकों के लिए एक अनिवार्य और संग्रहणीय पुस्तक ।
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