"स्त्री की दुनिया एक सुन्दर सपना है, आस्था एवं आकांक्षा भी । स्त्री उक्त सपने की तलाश में है। वर्तमान दुनिया और स्त्री की दुनिया के बीच काफ़ी दूरी है। इससे वाक़िफ़ होने के बावजूद स्त्री अपने सपनी को कसकर पकड़ती है । एकान्त में, फुरसत मिलते ही, यानी बच्चे एवं पति से छुटकारा लेकर मानसिक तौर पर ही सही, अपनी दुनिया में रमती आ रही है, रंग-विरंगे सपनों के साथ कई तरह के निर्णय भी लेती आ रही है। उच्चतम न्यायालय की हाल ही की वर्डिक्ट ने उक्त दूरी को कम कर दिया है। वह सपने की ओर उड़ान भरती स्त्री को सिर्फ़ ऊर्जा ही नहीं प्रदान करती है बल्कि उसके पंखों को मज़बूत भी करती है। अब स्त्री अपनी दुनिया का निर्माण करेगी ही। सैकड़ों सालों का संघर्ष का फल निकलकर ही रहेगा। इसकी झाँकियाँ स्त्री-विमर्श का समकालीन चेहरा प्रकट करती है। अब वह मात्र स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, ' पारिवारिक विघटन, सांस्कृतिक विधि-निषेध, ससुराल, हाशियेकरण की स्थिति पर नहीं, उससे आगे जाकर इतिहास, राजनीति, भूमण्डलीकरण, धर्म, साम्प्रदायिकता, पूँजी, पर्यावरण- पारिस्थितिकी, विज्ञापन की मायिक दुनिया, नये माध्यम, संचार क्रान्ति, आभासी यथार्थ आदि पर चर्चा करने लगी है। वह आज गुड़िया, हंडा, बोनसाई होने-बनाने से इनकार करती है, छिन्नमस्ता भी नहीं बनना चाहती है। इन सबसे परे लोकतन्त्र की सजग नागरिक की हैसियत से अपने दायित्वों को निभाने लगी है। मानव अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए पीड़ितों की सहायता भी करने लगी है, एनजीओ के तौर पर या राजनीतिक व समाजसेवी के तौर पर। इस तरह के प्रयासों को ताक़त प्रदान करना इस पुस्तक का अभिप्राय है।"
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