Band Kamre Ka Koras

Vibha Rani Author
Hardbound
Hindi
9788170554028
1st
1995
136
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बंद कमरे का कोरस -
'बंद कमरे का कोरस' विभा रानी के अपने अन्दाज़ और सोच का आइना ही नहीं, उनके अंदर छिपी हुई उस स्त्री का हमराज भी है जो अपने सुख-दुख की परछाइयाँ अपनी ही जैसी बहुत-सी दूसरी नारियों में खोजती। रहती हैं। उनका दर्द अकेला नहीं है। यह कई रिश्तों में जीता है। पुरुष प्रधान समाज में औरत होना, इस 'होने' को ढोते रहने के सामाजिक दायित्व को निभाते रहना... इन कहानियों का इतिहास है। लेकिन जो बात इनमें चौंकाती है वह समय, स्थिति और भाग्य के पारम्परिक त्रिकोण की नकारने का साहस है। यही उनका विद्रोह है। यही तेवर इन कहानियों के बीते हुए कल को गुज़रते हुए आज से जोड़ते हैं।
'जो है' उससे नाराज़गी और 'जो नहीं है' उसकी कमी का शदीद अहसास विभा रानी की क़लम का दायरा है और इसी दायरे में नये-नये दायरों की खोज ने कलाकार और शब्दों के रिश्ते और उनकी तहज़ीब को हर जगह सुरक्षित भी रखा है। वह न कहीं दार्शनिक का रूप धारती हैं और न ही नेता की तरह भाषण बघारती हैं। वह हर बात ख़ुद ही नहीं कह देती, पाठक से भी बीच-बीच में अपना कुछ जोड़ने का आग्रह करती हैं। इस फ़नकाराना रवैये की वजह से उनकी कहानियाँ नयी नवेली दुल्हन के नक़ाब की तरह धीमे-धीमे खुलती हैं, एक साथ बेहिज़ाब नहीं हो जाती. ...और काग़ज़ पर ख़त्म होने के बाद भी, पढ़नेवाले के ज़ेहन में बराबर चलती रहती हैं।

विभा रानी ने इन कहानियों को कविता की तरह नपे-तुले संकेतों और इशारों में बुना है।

विभा रानी (Vibha Rani)

जन्म : 1959 शिक्षा : एम.ए. (हिंदी), बी.एड. साहित्य : बंद कमरे का कोरस (हिंदी कहानी संग्रह), 'मिथिला की लोककथाएं', 'कन्यादान' (मैथिली उपन्यास : हरिमोहन झा), 'राजा पोखरे में कितनी मछलियाँ' (मैथिली उपन्यास : प्र

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