अक्सर खबरें आती हैं कि दबंगों द्वारा दलित युवाओं की पिटाई की गई या शादी के दौरान घोड़ी पर बैठने या दबंग जाति की लड़की से विवाह करने के कारण उनकी हत्या तक कर दी गई। दूसरी ओर, दलितों के भीतर से भी छोटे-बड़े स्तर पर ऐसी आवाजें उठती सुनाई देती हैं कि राजकीय लाभ सिर्फ कुछ बड़ी दलित जातियों तक सिमट कर रह गए हैं। राजनीतिक स्तर पर भी दलितों के भीतर एक बिखराव दिख रहा है। दलितों का एक अच्छा खासा तबका संघ परिवार की ओर आकृष्ट हुआ है। गुजरात की मुसलमान विरोधी हिंसा में दलितों की सक्रिय भागीदारी पर कुछ दलित चिंतकों ने उनके बीच संघ परिवार की बढ़ती स्वीकार्यता को माना था। पिछले दो संसदीय चुनावों में संघ परिवार के साथ दलितों के एक बड़े तबके के जुड़ाव का तथ्य सुस्थापित ही हो गया है। जहाँ कई दलित विद्वान वैश्वीकरण के समर्थन में दलीलें दे रहे हैं, वहीं बाजार में दलितों के साथ कई स्तरों पर भेदभाव हो रहा है। शहर भी अस्पृश्यता और जातिवाद के साये में हैं।
इस रोशनी में यह देखना जरूरी है कि दलित मुद्दों पर विद्वानों द्वारा किये जा रहे सैद्धांतिक अनुसंधान की दिशा क्या है? दलितों के बीच से आने वाली आवाजों को किस सीमा तक तरजीह दी गयी है? क्या बड़ी दलित जातियों ने इन्हें सकारात्मक मानते हुए इनका स्वागत किया है? क्या ये आवाजें दलित आंदोलन के लिए विभाजनकारी हैं या इन्हें समतावादी समाज की दिशा में एक सकारात्मक कदम समझा जाना चाहिए? इस संदर्भ में दलित स्त्रियों की आवाज़ों और भिन्नता की दावेदारी भी महत्त्वपूर्ण है। यह भी सोचना होगा कि दलितों के बीच संघ परिवार के बढ़ते प्रभाव की किस तरह व्याख्या की जा सकती है?
दो खंडों में प्रकाशित इस संकलन में सैद्धांतिक और दार्शनिक अनुसंधानों के साथ-साथ दलित राजनीति की पेचीदगियों और हाशिये के भीतर से उठने वाली आवाज़ों की शिनाख्त करने वाले छब्बीस विद्वानों के निबंधों को सम्मिलित किया गया है। इन ग्रंथों को भारतीय भाषा कार्यक्रम द्वारा उन्नीस वर्ष पहले प्रकाशित संकलन आधुनिकता के आईने में दलित का विस्तार भी माना जा सकता है। उस कृति में दलितों के जीवन और राजनीति पर आधुनिकता के प्रभावों की गहराई से पड़ताल की गयी थी। इस कृति में पिछले दो दशकों में उभरे दलित विमर्श के सैद्धांतिक पहलुओं का मंथन करने वाले आलेखों के साथ दलितों के भीतर हाशियाकृत समूहों से संबंधित अनुसंधानों और दक्षिणपंथ की ओर दलितों के एक तबके के बढ़ते रुझान से संबंधित आलेख भी हैं। इनमें से अधिकतर रचनाएँ प्रतिमान समय समाज संस्कृति में प्रकाशित हो चुकी हैं। इस लिहाज से ये रचनाएँ पिछले दो दशकों में दलित मुद्दों के इर्द-गिर्द होने वाले चिंतन के कुछ अहम आयामों का प्रतिनिधित्व करती हैं।