मण्टो 'सर्द पक्षधरता' का कायल नहीं है, इसीलिए उसकी कहानियाँ, समान रूप से, संवेदनशील पाठकों को बड़ी तीव्रता और गहराई के साथ विचलित करती हैं। वह सारी बेचैनी जिसे मौजूदा निज़ाम में मण्टो महसूस करता है, उसे वह बड़ी खूबी के साथ अपने पाठकों तक पहुँचा देता है। वह तिलमिलाहट, जिसने मण्टो को ये कहानियाँ लिखने के लिए उकसाया है, पाठक भी महसूस करते हैं और उस आक्रोश के तहत, जो मण्टो में शिद्दत से उभरता है, वे भी 'स्वराज्य के लिए' के गुलाम अली की चीख में अपना स्वर मिलाना चाहते हैं :
'इन्सान जैसा है, उसे वैसा ही रहना चाहिए। नेक काम करने के लिए क्या यह ज़रूरी है कि इन्सान अपना सिर मुँडाये, गेरुए कपड़े पहने और बदन पर राख मले?... दुनिया में इतने सुधारक पैदा हुए हैं-उनकी तालीम को तो लोग भूल चुके हैं, लेकिन सलीबें, धागे, दाढ़ियाँ, कड़े और बग़लों के बाल रह गये हैं...जी में कई बार आता है, बुलन्द आवाज़ में चिल्लाना शुरू कर दूँ - खुदा के लिए, इन्सान को इन्सान रहने दे, उसकी सूरत को तुम बिगाड़ चुके हो - ठीक है- अब उसके हाल पर रहम करो, तुम उसको खुदा बनाने की कोशिश करते हो, लेकिन वह गरीब अपनी इन्सानियत भी खो रहा है।' मण्टो की तलाश, दरअस्ल, इस लुप्त होती इन्सानियत की तलाश है। यही वजह कि 'फ़ितरत के खिलाफ़' जो कुछ होता है, उसे मण्टो एक लानत समझता है। जो भी चीज़ इन्सान की स्वाभाविक और प्राकृतिक अच्छाई पर आघात करती है, वह उसके ख़िलाफ़ अपनी आवाज बुलन्द करता है । इसीलिए उसकी बहुत-सी कहानियाँ, कहानीयत को लाँघ कर, मानव नियति का दस्तावेज़ बन गयी हैं।
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