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कहानी भी आख़िर एक 'सृष्टि' है जिसके मूल में 'सृजन' की प्रवृत्ति प्रमुख है। इसलिए कहानी का मूल्यांकन प्रथमतः 'सृष्टि' के रूप में होना चाहिए। इसके लिए यह स्वीकार करना आवश्यक है कि सृजनशीलता बुनियादी मूल्य है। इस दृष्टि से सबसे मूल्यवान कहानी वह है, जो सबसे अधिक सृजनात्मक है। सृजनशीलता ही किसी कहानी को नयी कहानी बनाती है। इसलिए आज नयी कहानी की माँग का अर्थ है कहानी में नये सृजन की माँग है।
यदि यह भी एक 'प्लैटीट्यूड' है तो इसलिए इस पर आज ज़ोर देने की और भी ज़रूरत है। कथनी और करनी में अन्तर आने पर ही कोई कथन 'प्लैटीट्यूड' प्रतीत होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आज साहित्य में सृजनशीलता का अभाव है। जहाँ रचनात्मक साहित्य ही इतना सृजनहीन हो वहाँ भी सृजनात्मक आलोचना की क्या आशा की जा सकती है? कहानी के क्षेत्र में घिसे-पिटे आलोचनात्मक मूल्यों का व्यवहार वस्तुतः रचनात्मक साहित्य की सृजनहीनता का विकृत आईना है।
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