मीरा का काव्य -
इस पुस्तक में पूरे भक्ति-काव्य को सामाजिक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया गया है। यह एकदम नया प्रयास नहीं है लेकिन जिन तथ्यों और बिन्दुओं पर बल दिया गया है और उन्हें जिस अनुपात में संयोजित किया गया है वह नया है। यह पुस्तक मीरा के काव्य पर केन्द्रित है लेकिन कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, प्रसाद, महादेवी, मुक्तिबोध और रामानुज, रामानन्द, तिलक, गाँधी की काव्य-स्मृतियों और विचार-संघर्ष में गुँथी सजीव अनुभूति की प्रस्तावना करती है। यानी अनुभूति और विचार का ऐसा प्रकाश-लोक जिसमें सभी अपनी विशेषताएँ क़ायम रखते हुए एक दूसरे को आलोकित करते हैं। यह तभी सम्भव है जब हर विचार और हर अनुभव में अपने-अपने युगों के दुःखों से रगड़ के निशान पहचान लिए जायें। भक्ति चिन्तन और काव्य ने पहली बार अवर्ण और नारी के दुःख में उस सार्थक मानवीय ऊर्जा को स्पष्ट रूप से पहचाना जिसमें वैयक्तिक और सामाजिक की द्वन्द्वमयता सहज रूप में अन्तर्निहित थी। मीरा की काव्यानुभूति का विश्लेषण करते हुए लेखक ने अनुभूति की उस द्वन्द्वमयता का सटीक विश्लेषण किया है।
ठोस जीवन-तथ्यों के कारण मीरा का दुःख बहुत निजी और तीव्र है, कठोर सामन्ती व्यवस्था से टकराने के कारण सामाजिक और गतिशील है, गिरधर नागर—यानी विचारधारा के कारण गहरा है। यही 'विरह' है। इस पुस्तक में मीरा के विरह को भाव दशा से आगे उस रूप में पहचानने का प्रयत्न किया गया है जो घनीभूत होकर प्रत्यय बन जाता है।
लेखक ने मीरा की कविता के अध्ययन के माध्यम से समस्त भक्तिकालीन सृजनशीलता का आधुनिक दृष्टिकोण, मुहावरे और पद्धति में नया संस्करण तैयार किया है।
यह न केवल मीरा के काव्य के अध्ययन के लिए अनिवार्य पुस्तक है बल्कि हिन्दी साहित्य की आलोचनात्मक विवेक-परम्परा की एक सार्थक कड़ी भी है।
—नित्यानन्द तिवारी
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