स्वप्न, फंतासी और कथात्मकता के ताने-बाने से काव्य सृजन के लिए चर्चित विमल कुमार समकालीन हिन्दी कविता के उन कवियों में से हैं जो संवेदना, द्वन्द्वात्मकता, उन्मुक्तता, पारदर्शिता, अन्तर्दृष्टि और विनम्र प्रतिबद्धता के जरिए समाज और व्यक्ति मन को विश्लेषित और परिभाषित करते हैं। उनकी कविताएँ यांत्रिक एवं शुष्क यथार्थवाद और 'विलक्षणतावाद' तथा 'बौद्धिक प्रदर्शनवाद' से परे हमारे समाज के तमाम अन्तर्विरोधों की पड़ताल करती है और भूमंडलीकरण तथा बाज़ार के युग में जटिल होते यथार्थ की बहुस्तरीयता को अनावृत्त करती हैं। उनकी कविताएँ अयोध्या प्रसंग, गुजरात प्रसंग के जरिए फासीवाद की क्रूरता को रेखांकित करती हैं, साथ ही प्रेम, मानवीय रिश्ते, गहरी रागात्मकता, कल्पनाशीलता के क्षरण को भी दर्ज करती हैं और सांस्कृतिक संकट को भी दर्शाती हैं। वह आज की राजनीति, विचारधारा और मनुष्य की नियति को लेकर प्रश्न भी खड़े करती है और हर तरह से 'सत्ता विमर्श' को भी एक्सपोज करने की कोशिश करती है।
विमल कुमार के लिए राजनीति महज दलगत राजनीति, चुनावी घोषणा-पत्र और फौरी तथा तात्कालिक हस्तक्षेप नहीं बल्कि वह मनुष्य और समाज की स्थायी मुक्ति का एक कारगर माध्यम है। वह एक ऐसी आदर्शोन्मुख राजनीति है जिसे व्यवहार में अभी आकार लेना है। एक तरफ वह 'चाँद और मनुष्य', 'नर्तकी', 'मत्स्यकथा', 'मुक्ति का अभिनय' तथा 'औरत का ख्वाब' जैसी कविताएँ लिखते हैं तो दूसरी तरफ 'पुजारी लालदास हे राजन!' 'कमलकांत शास्त्री', 'अहम् ब्रह्मास्मी' और 'एक जलते हुए शहर की यात्रा' जैसी कविताएँ भी लिखते हैं। उनके यहाँ निजता और सार्वजनिकता का सुंदर समन्वय दिखाई देता है। दरअसल, वह अपनी कविताओं में पतनशील संस्कृति, ढहते लोकतंत्र, जर्जर होते समाज की करुण गाथा कहते हैं और हर तरह के पाखण्ड, छद्म और कृत्रिमताओं का विरोध करते हैं। इन सबके बीच उनकी कविताओं में आशावाद की एक मद्धम लौ भी इस अंधेरे में नजर आती है। 'सपने में एक औरत से बातचीत' और 'यह मुखौटा किसका है' के बाद विमल कुमार की कविताओं का एक नया पड़ाव इस संग्रह में देखा जा सकता है, जो उनकी काव्य-यात्रा के प्रति उत्सुकता जगाता है।
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