माटी हो गयी सोना - मैं साहित्यकार की सम्पूर्ण ईमानदारी के साथ इस स्थिति में हूँ कि कहूँ—इन कथाओं को मैंने अपने ख़ून से लिखा है : कलेजे के ख़ून से, आत्मा के ख़ून से; और कलेजे का ख़ून ही इन कथाओं की कला है। इन कथाओं के पात्र मेरे लिए कभी कोरे पात्र नहीं रहे— वे मेरे निकट सदा सजीव बन्धु रहे हैं। मैंने उनके साथ बातें की हैं, मैं उनके साथ रोया-हँसा हूँ, और हँसी की बात नहीं, फाँसी भी चढ़ा हूँ, जीते जी जला भी हूँ। शायद कोरा अहंकार ही हो, पर मुझे तो सदा यही लगा है कि वे इतिहास के कंकाल थे, मैंने उन्हें अपना रक्त-मांस देकर यों खड़ा कर दिया है। इस स्थिति में भारत की नयी पीढ़ी को जब आज उन्हें भेंट कर रहा हूँ तो अपना ही तो भेंट कर रहा हूँ। इसका हर पात्र एक विशिष्ट युग का प्रतिनिधि है, प्रतीक है। मेरी शुभकामना है कि मेरे देश की नयी पीढ़ी मेरे रक्त से तरोताज़ा हो जीवन के क्षेत्र में आगे बढ़े!
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