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हमने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या पाया है जुज़ तेरें और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
-फैज़ अहमद 'फैज़'
★★★
'आगरा बाज़ार', 'मिट्टी की गाड़ी' और 'चरनदास चोर' यह तीन नाटक इसी तरतीब से मेरे रंगकर्म के सफ़र में संगे-मील हैं। यानी सन् 1954, 1958 और 1975- ये तीन साल मेरे आर्ट के इरतिक़ा (विकास) में सबसे ज्यादा अहमियत और मेरी थिएटर की ज़िन्दगी में तारीख़ी हैसियत रखते हैं। यही तीन नाटक हैं, जो कम्बल की तरह मुझसे चिपककर रह गए और बार-बार की फ़रमाइशों ने उन्हें सदाबहार बना दिया। इसके अलावा यही तीन ऐसे नाटक भी हैं, जिन्हें आलोचकों ने कुतर-भँभोड़ा। लेकिन अवाम में इनकी मक़बूलियत कम न हुई बल्कि बढ़ती ही गई। यही तीन ऐसे नाटक भी हैं, जिन्होंने अपने-अपने ढंग से मुझे वो शैली दी, जिसमें एक लिहाज़ से बाद के सारे 'प्रोडक्शनों' में मेरे दस्तख़त की सूरत अख्तियार कर ली। इन सब बातों के अलावा एक यह हक़ीकत भी क़ाबिले-ज़िक्र है कि यही तीन नाटक मेरे ख्वाब की ताबीर बर लाने में सबसे ज़्यादा मेरे मददगार साबित हुए हैं। वो ख़्वाब था-एक पेशावर थिएटर बनाना ।
- भूमिका से
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