कश्मीरी कविता में प्रेमपरक भावधारा प्रवाहित करने का श्रेय हब्बा ख़ातून (1552-1592) को जाता है। उस प्रवाह को जारी रखने और आगे ले जाने का काम किया हब्बा से दो सौ साल बाद कवयित्री अरणिमाल (1738-1800 अनुमानित) ने। दोनों के समय और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में अन्तर है, किन्तु प्रणय-जन्य विरह वेदना की उठान में सातत्य है । यथार्थ और भौतिक जीवन की विडम्बना और मृदुल भावनालोक के द्वन्द्व से उनके कंठ से फूटे गीत-गान मौखिक रूप में ही सदियों घाटियों- वादियों, केसर के खेतों, झील में तिरते सिकारों, यानी कश्मीरी सरज़मीं के जर्रे जर्रे में झंकृत होते रहे। कश्मीर की कोयलों के इन गीत-गानों ने न सिर्फ़ लोक संस्कृति को समृद्ध किया, बल्कि आधुनिक कश्मीरी कविता के विकास में भी इनका निर्णायक योगदान है। विडम्बना ही है, कि भारतीय काव्य - परम्परा की इन दो हार्दिक हस्तियों की स्वर - साधना से हिन्दी भाषा साहित्य अब तक अपरिचित रहा आया। सुपरिचित कवि-द्वय सुरेश सलिल और (स्व.) मधु शर्मा के अनुवाद में पहली बार हब्बा ख़ातून व अरणिमाल के अमर गीत हिन्दी में प्रस्तुत किये जा रहे हैं। इन अनुवादों में लय और गीति-तत्व को अक्षुण्ण रखने की भरसक कोशिश की गयी है ।
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